Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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षष्ठाध्यायस्य प्रथमः पादः
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अन्तादिवद्भावः
(१४) अन्तादिवच्च।८५। प०वि०-अन्तादिवत् अव्ययपदम्, च अव्ययपदम्।
स०-अन्तश्च आदिश्च तौ अन्तादी, ताभ्याम्-अन्तादिभ्याम्, अन्तादिभ्यां तुल्यम्-अन्तादिवत् (इतरेतरयोगद्वन्द्व:) अत्र तेन तुल्यं क्रिया चेद् वति:' (५।१ ।११४) इति तुल्यार्थे वति: प्रत्यय: ।
अनु०-संहितायाम्, एक:, पूर्वपरयोरिति चानुवर्तते। अन्वयः-संहितायां पूर्वपरयोरेकोऽन्तादिवच्च।
अर्थ:-संहितायां विषये य: पूर्वपरयोरेकादेशो विधीयते स पूर्वस्यान्तवत् परस्य चादिवद् भवति।
उदा०-ब्रह्मबन्धूः, वृक्षौ।
आर्यभाषा: अर्य-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में जो (पूर्वपरयो:) पूर्व और पर वर्गों के स्थान में (एक:) एकादेश किया जाता है वह (अन्तादिवत्) पूर्व वर्ण का अन्तवत् और पर वर्ण का आदिवत् (च) भी होता है।
उदा०-ब्रह्मबन्धूः । पतित ब्राह्मणी। वृक्षौ । दो वृक्ष। सिद्धि-(१) ब्रह्मबन्धूः । ब्रह्मबन्धु+ऊङ् । ब्रह्मन्धु+ऊ। ब्रह्मबन्ध+सु । ब्रह्मबन्धूः ।
यहां ब्रह्मबन्धु के पूर्व उकार और ऊङ् प्रत्यय के पर ऊकार को 'अक: सवर्णे दीर्घः' (६।१।९८) से दीर्घ ऊकार रूप एकादेश है। यह एकादेश इस सूत्र से पूर्व का आदिवत् और पर का अन्तवत् होता है, अर्थात् 'ब्रह्मबन्धु' यह प्रातिपदिक है और ऊ अप्रातिपदिक (प्रत्यय) है। इन प्रातिपदिक और अप्रातिपदिक दोनों का जो एकादेश है वह प्रातिपदिक का अन्तवत् होता है। इससे ‘ड्या प्रातिपदिकात्' (८।१।१) से 'सु' आदि प्रत्यय होते हैं।
(२) वृक्षौ । वृक्ष+औ। वृक्षौ।
यहां वृक्ष' शब्द का अकार असुप् है और औ प्रत्यय का औकार सुप् है। इन दोनों असुप् अकार तथा सुप् औकार के स्थान में वृद्धिरेचि' (६।१।८५) से वृद्धिरूप औकार एकादेश होता है। इस सूत्र से सुप् औकार को आदिवत् मानकर वृक्षौ' की 'सुप्तिङन्तं पदम् (१।४।१४) से पद संज्ञा होती है।