Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (३) प्रष्ठौहः । प्रष्ठवाह+शस्। प्रष्ठवह+अस् । प्रष्ठ ऊ आह+अस् । प्रष्ठ अ आह्+अस् । प्रष्ठ ऊ ह+अस्। प्रष्ठौवहः ।
यहां प्रष्ठवाह' शब्द से 'स्वौजस्०' (४।१।२) से शस् प्रत्यय है। वाह ऊठ् (६।४।१३२) से वाह' के वकार को सम्प्रसारण रूप ऊठ' आदेश और सम्प्रसारणाच्च (६।१।१०४) से आकार को पूर्वरूप ऊकार आदेश होता है। इस सूत्र से प्रष्ठ के अकार और ऊठ के ऊकार को वृद्धिरूप (औ) एकादेश होता है। यह आद् गुणः' (६।१।८७) का अपवाद है। 'एचि' का सम्बन्ध केवल एति और एधति से है, ऊ से नहीं, सम्भव न होने से। ऐसे ही-प्रष्ठौहा (टा), प्रष्ठौहे (डे)। वृद्धि-एकादेशः
(१६) आटश्च ।६०। प०वि०-आट: ५ १ च अव्ययपदम् ।
अनु०-संहितायाम्, एक:, पूर्वपरयोः, वृद्धिरिति चानुवर्तते, एचि इति निवृत्तम्।
अन्वय:-संहितायाम् आटश्चाऽचि पूर्वपरयोवृद्धिरेक: ।
अर्थ:-संहितायां विषये आट उत्तरस्मादचि परत: पूर्वपरयो: स्थाने वृद्धिरूप एकादेशो भवति।
उदा०-ऐक्षत, ऐक्षिष्ट, ऐक्षिष्यत, औभीत्, औब्जीत्, आर्नोत् ।।
आर्यभाषा: अर्थ- (संहितायाम्) सन्धि-विषय में (आट:) आट् आगम से उत्तर (अचि) अच् परे होने पर (पूर्वपरयो:) पूर्व, पर के स्थान में (वृद्धि:) वृद्धि रूप (एक:) एकादेश होता है।
उदा०-ऐक्षत । उसने देखा । ऐक्षिष्ट । उसने देखा। ऐक्षिष्यत । यदि वह देखता। औभीत् । उसने पूरण किया। औब्जीत् । उसने आर्जव=सरल व्यवहार किया। आर्नोत् । वह बढ़ा।
सिद्धि-(१) ऐक्षत । ईक्ष+लङ् । आट्+ईश्+त । आ+ईश्+शप्+त। आ+ईश्+अ+त। ऐक्ष+अ+त। ऐक्षत।
यहां ईक्ष दर्शने' (भ्वा०आ०) धातु से लङ् प्रत्यय है। 'आडजादीनाम्' (६।४।७२) से 'आट्' आगम होता है। इस सूत्र से आट के आकार और ईक्ष के ईकार को वृद्धिरूप (ए) एकादेश होता है।
(२) ऐक्षिष्ट । यहां ईक्ष दर्शने' (भ्वा०आ०) धातु से लुङ्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है।