Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् वान्त-आदेशः
(८) वान्तो यि प्रत्यये।७६ । प०वि०-वान्त: ११ यि ७१ प्रत्यये ७।१। स०-वोऽन्ते यस्य स वान्त: (बहुव्रीहिः) । अनु०-संहितायाम्, एच इति चानुवर्तते । अन्वय:-संहितायां यि प्रत्यये एचो वान्तः ।
अर्थ:-संहितायां विषये यकारादौ प्रत्यये परत एच: स्थाने वान्त आदेशो भवति । वान्त: अव्-आवावित्यर्थः ।
उदा०-(अव) बाभ्रव्य:, माण्डव्य:, शकव्यं दारु, पिचव्य: कार्पास: (आव्) नाव्यो ह्रदः।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (यि) यकारादि (प्रत्यये) प्रत्यय परे होने पर (एच:) एच् ओ और औ के स्थान में (वान्तः) वकारान्त=अव् और आव् आदेश होते हैं।
__ उदा०-(अव) बाभ्रव्यः । बभ्रु का पौत्र (कौशिक)। माण्डव्य: । मण्डु का पौत्र। शङ्कव्यं दारु । शकु=खूटे के लिये हितकारी लकड़ी। पिचव्य: कार्पास: पिचु=रूई के लिये हितकारी कपास। (आव) नाव्यो हृदः । नौका से तरने योग्य तालाब।
सिद्धि-(१) बाभ्रव्यः । बभ्रु+यज । बाभ्रो+य । बाभू अव्+य। बाभ्रव्य+सु । बाभ्रव्यः ।
यहां बभ्रु' शब्द से 'मधुबभूवोर्ब्राह्मणकौशिकयो:' (४।१।१०६) से गोत्रापत्य (कौशिक) अर्थ में 'यञ्' प्रत्यय है। 'ओर्गुणः' (६।४।१४६) से अंग को गुण और तद्धितेष्वचामादे:' (७।२।११७) से अंग को आदिवृद्धि होती है। इस सूत्र से यकारादि प्रत्यय परे होने पर बाभ्रो' के एच् (ओ) के स्थान में वान्त (अव) आदेश होता है।
(२) माण्डव्यः। यहां मण्डु' शब्द से गोत्रापत्य अर्थ में 'गर्गादिभ्यो य (४।१।१०५) से यञ्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
(३) शङ्कव्यम् । यहां 'शकु' शब्द से उगवादिभ्यो यत्' (५।१।२) से हित-अर्थ में यत्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
(४) पिचव्यः । यहां पिचु' शब्द से 'उगवादिभ्यो यत्' (५।१।२) से हित-अर्थ में 'यत्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है।।
(५) नाव्यः । नौ+यत् । न् आव्+य। नाव्य+सु। नाव्यम्।।
यहां नौ' शब्द से नौवयोधर्मः' (४।४।१) से तार्य-अर्थ में 'यत्' प्रत्यय है। इस सूत्र से यकारादि प्रत्यय परे होने पर एच् (औ) के स्थान में वान्त (आव) आदेश होता है।