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(११) निश्चयपरमावश्यकाधिकार :
शो मन्य के वश में नहीं है वह अवश है तथा अवश का जो कार्य है वह मावश्यक है। अवश-पदा स्वाधीन रहनेषाला श्रमरण ही मोक्ष का पात्र होता है । जो साधु, शुभ या अशुभ भाव में लीन हो वह प्रधश नहीं है किन्तु पन्यवश है, उसका कार्य पावश्यक कसे हो सकता है ? जो परभाव को छोड़कर निर्मन स्वभाव वाले प्रारमा का ध्यान करता है वह पात्मवश-स्ववा-स्वाधीन है इसका कार्य मावश्यक कहलाता है । मावश्यक प्राप्त करने के लिये कुन्दकुन्द स्वामी कितनी महत्वपूर्ण देशना देते हैं, देखिये
आवासं जइ इच्छसि अप्प सहावेसु कुदि घिरमा । तेण दु सामगगुणं संपुग्णं होदि जीवस्स ॥१४॥
हे धमए ! यदि प्रावश्यक को इ-छा करता है तो प्रारमस्वभाव में स्थिरता कर, क्योंकि जीव का धामण्य-अमणपम उसी से संपूर्ण होता है ।
पौर भी कहा है कि जो श्रमण भावश्यक से रहित है वह चारित्र से भ्रष्ट माना जाता है इसलिये पूर्वोक्त विधि से मावश्यक करना चाहिये । मावश्यकसहित श्रमण अन्तरात्मा होता है और प्रावश्यक से रहित घमण बहिरात्मा होता है ।
समता, बन्दना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय मोर कायोत्सर्ग से BE पावश्यक कहलाते हैं. इनका पार्थ रोति से पालन करनेवाला श्रमाण ही यथार्थ श्रमण है।
(१२) शुद्धोपयोगाधिकार :
इस अधिकार के प्रारम्भ में ही कुन्दकुन्दस्वामी ने निम्नलिखित महत्वपूर्ण गाथा मिस्त्री है--
जाणवि पस्सवि सवं वबहारणयेण केवली भगई। केवलणाणी आणधि पस्सदि णियमेय अप्पाणं ॥१५॥
केवलज्ञानी व्यवहारनय से सबको जानते देखते हैं परात निश्चयनय से प्रात्मा को ही जानने देखने ।
इस कथन का फलितार्थ यह नहीं लगाना चाहिये कि केवली, निश्चयनय से सज नहीं है मात्रमात्मज है, क्योंकि प्रात्मशता में ही सर्वशता गभित है। वास्तव में मारमा किसी भी पदार्थ को सब जानता है जबकि उसका विकल्प प्रात्मा में प्रतिफसित होता है। जिसप्रकार दपंग में प्रतिबिम्बित भरपयादि पवार्थ दर्पणरूप ही होते हैं उसी प्रकार प्रारमा में प्रतिफलित पदार्थों के विकल्प प्रात्मरूप ही होते हैं । परमार्थ से प्रात्मा उम विकल्पों