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कसायपाहुडसुत्त
आठ गाथाओं की एक साथ समुत्कीर्तना करके पीछे उनमें यथावश्यक कुछ गाथाओं की प्ररूपणाविभापा करके शेपकी प्ररूपणाका भार उच्चारणाचार्योंपर छोड़ दिया गया है । केवल एक चारित्रमोहक्षपणा नामक पन्द्रहवां अधिकार ही ऐसा है कि जिसके ११० गाथाओं की चूर्णिकारने पृथक्-पृथक् उत्थानिका, समुत्कीर्तना और विभापा की है । जहा यह पन्द्रहवां अधिकार गाथा - सूत्रों की अपेक्षा सबसे बड़ा है, वहां इसके चूर्ण सूत्रों की संख्या भी सबसे अधिक अर्थात् १५७२ है ।
यहां एक बात ध्यान देने जैसी है कि चूर्णिकारने सुगम होनेसे व्यंजन नामक अधिकारकी ५ गाथाओं मे से किसी पर भी एक चूर्णिसूत्र नहीं लिखा है । केवल उत्थानिक रूप से अधिकारका आरम्भ करते हुए '१. वंजणे ति अणियोगद्दारस्स सुतं । २. तं जहा ।' ये दो सूत्र ही लिखे हैं । कहने का सारांश यह है कि चूर्णिकारने जिन गाथासूत्रोको सुगम समझा, उनकी विभापा नहीं की है और जिन गाथासूत्रों पर जहां जो विशेष बात कहना जरूरी समझा है, वहां उसे कहा है ।
चूर्णिकारके व्याख्यानकी एक विशेषता यह है कि जहां कहीं उन्हे कुछ विशेष बात कहना होती है, वहां वे स्वयं ही 'कथं' केण कारण, कधं सत्थाणपदाणि भवन्ति, आदि कहकर पहले शंकाका उद्भावन करते हैं और पीछे उसका सयुक्तिक समाधान करते हैं । इसके लिए देखिए पृ० २२, २३, २६, १८६, १६३, २०६, २१४, ३१६, ३१७, ४६३, ५८६, ५६१, ६१६, ६६२, ७१५, ७८६, ८३३, ८५७ ८६२, ८७४, ८८१,८४,८७,८६०, ८६२ इत्यादि ।
क्षीणाक्षीण और स्थित्यन्तिक अधिकारों का वर्णन तो आशका को उठाकर ही किया गया है । चारों विभक्तियोंका, सक्रम और उदीरणा अधिकार में स्वामित्व, काल और अन्तरादिक अनुयोगद्वारोंका वर्णन पृच्छापूर्वक ही किया गया है ।
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दो प्रकार के उपदेशों का उल्लेख
चूर्णिकारने कुछ विशिष्ट स्थलों पर दो प्रकार के उपदेशोका उल्लेख किया है । उनमेसे उन्होंने एकको 'पवाइज्जत उपदेश' कहा है और दूसरेको अन्य उपदेश' कहकर सूचित किया है । जिसका अर्थ जयधवलाकारने 'अपवाइज्जत उपदेश' किया है । जहाँ जहाँ ऐसे मत-भेदोंका उल्लेख चूर्णिकार ने किया है वहां वहां जयधवलाकार ने उनके अर्थका भी कुछ न कुछ स्पष्टीकरण किया है । जयधवलाकारने पवाइज्जंत या पवाइज्जमान (प्रवाह्यमान) उपदेशको आर्य नागहस्तीका और अपवाइज्जंत या अपवाइज्जमान (श्रप्रवाह्यमान ) उपदेशको आर्यमं चुका बतलाया है । प्रायः सर्व स्पष्टीकरणों में उक्त समता होते हुए भी दो एक स्थलों पर कुछ विषमता या विभिन्नता भी दृष्टिगोचर होती है । यथा
(१) पृ० ५६२ पर कपायोंके उपयोग-कालका श्रल्पबहुत्व बतलाते हुए सर्व प्रथम चूर्णिकारने इस मतभेदका उल्लेख किया है । जो इस प्रकार है
१६. पवाइज्जंतेण उचदेसेण श्रद्धाणं विसेसो तोमुहुच ।
अर्थात् प्रवाह्यमान उपदेशकी अपेक्षा क्रोधादि कपायोंके उपयोगकालगत विशेषताका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है |
इस पर टीका करते हुए जयधवलाकार लिखते हैं
"को बुरा पवाइज्जतोवएसो णाम बुतमेदं १ सच्चाइरियसम्मदो चिरकालम