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प्रस्तावना प्रस्तुत चूर्णिमें कसायपाहुडके गाथासूत्रोंकी समुत्कीर्तना तो यथास्थान सर्वत्र की गई है, पर विभाषाके प्रकारमें अन्तर दृष्टिगोचर होता है । कहीं पर प्ररूपणाविभाषा की गई है, तो कहीं पर सूत्रविभापा । सूत्रविभापाके उदाहरण के लिए पृ० ४६ पर 'पयडीए मोहणिज्जा' इस २२ वीं गाथाकी और पृ० २५३ पर 'संकम-उवकमविही' इत्यादि २४, २५ और २६ वीं गाथाकी व्याख्या देखना चाहिए, जहाँपर कि 'पदच्छेदो' कहकर गाथासूत्रके एक-एक पदका उच्चारण करते हुए उनसे सूचित अर्थको प्रकट किया गया है । पर इस प्रकारकी सूत्रविमापा समग्र ग्रन्थमे बहुत कम गाथाओंकी दृष्टिगोचर होती है । चूर्णिकारने अधिकांशमें गाथासूत्रोंकी प्ररूपणाविभाषा ही की है। अनेक गाथासूत्र ऐसे भी हैं, जिनकी दोनों ही प्रकार की विभापा उनके सुगम होनेसे नहीं की गई है और समुत्कीर्तनामात्र करके लिख दिया है कि इसकी समुत्कीर्तना ही विभाषा है।
यदि आ० गुणधर-प्रणीत गाथासूत्रोंकी संख्या २३३ ही मानी जाय, तो ५३ गाथासूत्र ऐसे हैं, जिनपर कि एक भी चूर्णिसूत्र नहीं लिखा गया है । ऐसे गाथासूत्रोंके क्रमाक इस प्रकार है-२, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ६, १०, ११, १२, १५, १६, १७, १८, १९, २०, २८, २९, ३०, ३१, ३२, ३३, ३४, ३५. ३६, ३७, ३८, ३६, ४०, ४१, ४२, ४३, ४४, ४५, ४६, ४७, ४८, ४६, ५०, ५१, ५२, ५३, ५४, ५५, ५६, ५७, ५८ तथा ८६,८७, ८८, ८६ और ६० ।
गाथाङ्क १ पर जो चूर्णिसूत्र है, वे प्रथम गाथाके प्ररूपणाविमापात्मक न होकर उपक्रमपरिभाषात्मक है । गाथाङ्क १३-१४ पर वस्तुतः व्याख्यात्मक एक भी चूणिसूत्र नहीं है, अपितु चूर्णिकारने अपनी दृष्टि से एक नये प्रकारसे क्सायपाहुडके १५ अधिकारोका प्रतिपादन किया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि कसायपाहुडकी १८० गाथाओंसे वाह्य जो ५३ गाथाएं हैं और जिनके कि गुणधर-प्रणीत होनेके विषयमें मतभेद है, उनमें से २४. २५ और २६ इन तीन नम्बर वाली गाथाओं पर ही चूर्णिसूत्र उपलब्ध हैं, शेष ५० गाथाओंकी चूर्णिकारने कुछ भी व्याख्या नहीं की है । इस प्रकार केवल १८३ गाथाओं पर ही चूर्णिसूत्र उपलब्ध होते हैं । इनमें भी २० गाथाएं ऐसी है, जिन पर कि नाममात्रको चूर्णिसूत्र मिलते हैं । गाथाङ्क १५५ पर पृ० ७७८ में कहा गया है
४०३. एदिस्से एक्का भासगाहा । ४०४ तिस्से समुक्त्तिणा च विहासा च कायव्वा । ४०५, तं जहा।
ये चूर्णिसूत्र भी विभाषात्मक न होकर पूर्वापर सम्बन्ध-द्योतक या उत्थानिकात्मक है।
उक्त प्रकारके गाथासूत्रोंकी क्र मसख्या इस प्रकार है-१३६, १५५, १५७, १६२, १६८, १८४, १८६, १६१, १६४, १६७, १९८, १६६, २०४, २०७, २१४, २१६, २१८, २२६, २३२ और २३३ ।
कुछ गाथाएं ऐसी भी हैं, जिनकी पृथक-पृथक विभाषा नहीं की गई है, किन्तु एक प्रकरण या अधिकारसम्बन्धी गाथाओंकी एक साथ समुत्कीर्तना करके पीछेसे उनकी प्ररूपणाविभापा कर दी गई है। जैसे वेदक अधिकारमें ५६ से ६२ तककी ४ गाथाओंकी, उपयोग अधिकारमें ६३ से लेकर ६६ तक ७ गाथाओंकी, चतुःस्थान अधिकारमें ७० से लेकर ८५ तक १६ गाथाओंकी, व्यंजन अधिकारमें ८६ से लेकर ६८ तक ५ गाथाओंकी, सम्यक्त्व अधिकारमें १ से १४ तक ४ गाथाओंकी तथा ६५ से लेकर १०६ तक १५ गाथाओंकी, दर्शनमोहक्षपणामें ११० से लेकर ११४ तक ५ गाथाओंकी, और चारित्रमोहोपशामना-अधिकारमें ११६ से लेकर १२३ तक
* विहासा एसा । ( देखो पृ० ८२७, पक्ति