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सूत्र-संख्या
२५
१४०
१४२
७०६
३०८
७४०
प्रेस्तावना अधिकार-नाम सूत्र-संख्या
अधिकार-नाम प्रेयोद्वेषविभक्ति
११२ वेदक
६६८ प्रकृतिविभक्ति
१२६ उपयोग
३२१ स्थितिविभक्ति
४०७
चतुःस्थान अनुभागविभक्ति
१८६
व्यजन प्रदेशविभक्ति
२६२
दर्शनमोहोपशामना क्षीणाक्षीणाधिकार
दर्शनमोहक्षपणा
१२८ स्थित्यन्तिक
१०६ संयमासयमलब्धि ६० बन्धक
संयमलब्धि प्रकृतिसंक्रमण
२६५
चारित्रमोहोपशामना स्थितिसंक्रमण
चारित्रमोहक्षपणा १५७० अनुभागसक्रमण
५४०
पश्चिमस्कन्ध प्रदेशसंक्रमण
समस्त योग ७०० जयधवला टीकाके आद्योपान्त आलोड़नसे चूर्णिसूत्रोंके विपयमे कुछ नवीन बातों पर भी प्रकाश पड़ता है । जैसे
(१) पूर्व सूत्र-द्वारा किसी विषयका प्रतिपादन कर चुकनेके बाद तद्गत विशेषताको बतलानेके लिए 'णवरि' कह कर कहीं पृथक् सूत्ररूपसे उसे अंकित किया गया है, तो कहीं उसे पूर्व सूत्रमें ही सम्मिलित कर दिया गया है। अपृथक्त्वताके उदाहरण१. पृ० १२, सू० ११. एवं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताण । णवारि अतोमुहत्तणाओ। २. पृ० ३२६, सू० १५४. एवं सेसाणं पयडीणं । णवरि अवत्तव्यया अस्थि । ३. पृ० ३६२, सू० १६४. एव सम्मामिच्छत्तस्स वि । णवरि सम्मत्तं विजमाणेहि ____ भणियव्वं । ४. पृ० ३८१, सू० ३८६. एवं सेसाणं कम्माणं । णवरि अवतव्यसंकामयाणमुक्कस्सेण संखेज्जा समया । इत्यादि
जयधवला टीकामें इन सभी सूत्रोंके 'णवरि' पदसे आगेके अशकी टीका एक साथ ही की गई है, इसलिए इन्हे विभिन्न सूत्र न मानकर एक ही सूत्र माना गया और तदनुसार ही उन पर एक नम्बर दिया गया है।
(२) अब कुछ ऐसे उद्धरण दिये जाते हैं, जहॉपर 'णवरि' पदसे आगेके अशको भिन्न सूत्र मानकर जयधवलाकारने उत्थानिका-पूर्वक पृथक् ही टीका लिखी है१. पृ० ११६, सू० १८३. एवं णवु सयवेदस्स । १८४. णवरि णियमा अणुक्कस्सा । २. पृ० १३१, सू० २८४. सेसाणं कम्माणं वित्तिया सव्वे सव्वद्धा। २८५. णवरि
अणंताणुबंधीणमवत्तव्यढिदिविहत्तियाण जहएणेण एगसमत्रो । ३. पृ० १३६, सू० ३२६. एवं सव्यकम्माणं । ३३०. णवरि अणंताणुबंधीणमवत्तव्वं
सम्मत्त-सम्मामिच्छत्वाणमसंखेज्जगुणवड्ढी अवत्तव्यं च अस्थि । ४. पृ० ३३३, सू० १६६. सेसाणं मिच्छत्तभंगो । १६७. णवरि अवतव्यसंकामया
भजियव्वा । इत्यादि