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कसोयपाहुइँसुत्ते चूर्णिसूत्रोके अध्ययनसे बात होता है कि चूर्णिकारके सामने जो आगमसूत्र उपस्थित थे और उनमें जिन विषयोका वर्णन उपलब्ध था, उन विपयोंको प्रायः यतिवृपभने छोड़ दिया है। किन्तु जिन विषयों का वर्णन उनके सामने उपस्थित आगमिक साहित्यमे नहीं था और उन्हे जिनका विशेष ज्ञान गुरु-परम्परासे प्राप्त हुआ था, उनका उन्होंने प्रस्तुत चूर्णिमे विस्तारके साथ वर्णन किया है। इसके साक्षी वन्ध और संक्रम आदि अधिकार है। यतः महाबन्धम चारों प्रकारोंके बन्धोंका अति विस्तृत विवेचन उपलव्ध था, अतः उसे एक सूत्रमें ही कह दिया कि 'वह चारों प्रकारका वन्ध बहुशः प्ररूपित है। किन्तु संक्रमण सत्त्व उदय और उदीरणाका विस्तृत विवेचन उनके समय तक किसी ग्रन्थमें निबद्ध नहीं हुआ था, अतएव उनका प्रस्तुत चूर्णिमें बहुत विशद एवं विस्तृत वर्णन किया है । इसीसे यह भी ज्ञात होता है कि यतिवृपभका आगमिक ज्ञान कितना अगाध, गंभीर और विशाल था।
. प्रस्तुत चूर्णिसूत्रोंमे पखंडागमसूत्रोंका प्रतिविम्ब और शैलीका अनुसरण दृष्टिगोचर होता है । पटखडागमके द्रव्यानुगम, क्षेत्र, स्पर्शन, काल और अन्तरादि प्ररूपणाओमें जिस प्रकार 'केवडिया, केवडि खेत्ते, केवचिर कालादो होति' आदि पृच्छाओंका उद्भावन करके प्रकृत विपयका निरूपण किया गया है, ठीक उसी प्रकारसे प्रस्तुत चूर्णिसूत्रोमे भी वही शैली और क्रम दृष्टिगोचर होता है । पखंडागमके छठे खंड महाबन्धमें चारों बन्धोंका जिन २४ अनुयोग-द्वारोंसे निरूपण किया गया है, प्रस्तुत चूर्णिमे भी चारों विभक्तियों और चारों प्रकारके संक्रमणोंका उन्हीं अनुयोग-द्वारोंसे वर्णन करनेकी प्रतिज्ञा पाते है । भेद केवल इतना है कि महाबन्धमे प्रत्येक वन्धका चौवीस अनुयोगद्वारोसे प्रोव ( १४ गुणस्थानों) और आदेश (१४ मार्गणाओं) की अपेक्षा प्रकृत विषयका पृथक पृथक स्पष्ट विवेचन किया गया है, तो प्रस्तुत चूर्णिसूत्रों में दोचार मुख्य अनुयोगद्वारोंसे ओघकी अपेक्षा प्रकृत विपयका वर्णन कर आदेशकी अपेक्षा गति आदि एकाध मार्गणाका वर्णन किया गया है और शेप मार्गणाओं और अनुयोगद्वारोकी अपेक्षा प्रकृत विपयके वर्णन करनेका भार उच्चारणाचार्योंके ऊपर छोड़ दिया है। यही कारण है कि यतिवृपभ-द्वारा सौंपे गये उत्तरदायित्वका निर्वाह करने के लिए उच्चारणाचार्योंने उन-उन अव्याख्यात स्थलोका व्याख्यान किया और किसी विशिष्ट आचार्यने उसे लिपि-बद्ध करके पुस्तकारुढ कर दिया, जो कि उच्चारणावृत्ति नामसे प्रसिद्ध है। स्थिति, अनुभाग और प्रदेशविभक्तिके प्रारम्भमें महावन्ध और उच्चारणावृत्तिसे दिये गये विस्तृत टिप्पणोंसे उक्त कथनकी सचाईम कोई संदेह नहीं रहा जाता है ।
चूर्णिसूत्रोंकी संख्या और परिमाण-इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारके अनुसार चूर्णिसूत्रोका परिमाण ६ हजार श्लोक-प्रमाण है, ऐसा स्पष्ट उल्लेख मिलता है, किन्तु उनकी संख्या कितनी रही है, इसका कहींसे कुछ पता नहीं चलता। हॉ, जयधवला टोकासे इतना अवश्य ज्ञात होता है कि प्रस्तुत चूर्णिका प्रत्येक वाक्य उन्हे सूत्ररूपसे अभीष्ट रहा है, इसलिये स्थान-स्थान पर उन्होंने 'उपरिमसुत्तमाह, सुत्तद्दयमाह' इत्यादि पदोंका प्रयोग किया है। जयधवला टीकाके अनुसार ऐसे पृथक्-पृथक् सूत्ररूपसे प्रतीत होने वाले सूत्रोंके प्रारम्भमें सख्या-वाचक अंक दिये गये है, जिससे कि किये गये अनुवादके साथ मूलसूत्रोंके अर्थका मिलान भी किया जा सके और कसायपाहुड-चूर्णि के समस्त सूत्रीकी सख्या भी जानी जा सके । इस प्रकार कसायपाहुडके विभिन्न प्रकरणों के चूर्गिसूत्रोंकी संख्या इस प्रकार है
ही देखो बन्धाधिकार मू० ११ ।