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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
के बाद जैन लेखकों ने शनैः शनैः 'संस्कृत' को भी साहित्य सृजन के लिए प्रयोग करना प्रारम्भ कर दिया था। सम्भवत: 'संस्कृत' को ब्राह्मण संस्कृति तथा अभिजात वर्ग की भाषा मानने जैसी सङ्कीर्ण भावनात्रों के प्रचलन होने के कारण सातवीं शताब्दी ईस्वी तक जैन लेखकों का संस्कृत के प्रयोग करने में मन्द उत्साह रहा था, किन्तु सातवीं-आठवीं शताब्दी से उत्तरोत्तर जैन लेखक पूर्ण मनोयोग से संस्कृत के माध्यम से विभिन्न धार्मिक, दार्शनिक तथा साहित्यिक सृजन के लिए जुट गए। परिणामतः सातवीं शताब्दी के बाद जैन लेखकों का संस्कृत साहित्य के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । 2
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'महाकाव्य' विषयक पाश्चात्य एवं आधुनिक धारणाओं की दृष्टि से भी यदि विचार करें तो 'विकसनशील महाकाव्य' तथा 'अलङ्कृत महाकाव्य' सम्बन्धी महाकाव्यात्मक विकास की धाराएं भी संस्कृत जैन महाकाव्य परम्परा में सुतरां चरितार्थ हो पाती हैं । इस दृष्टि से संस्कृत जैन काव्य का सर्वप्रथम ग्रन्थ रविषेण का 'पद्मचरित' है तथा इसे जैन विकसनशील महाकाव्य की संज्ञा दी जा सकती है । जटासिंहनन्दि का वराङ्गचरित संस्कृत जैन अलङ्कृत महाकाव्य है डा० ए. एन. उपाध्ये महोदय के अनुसार 'पद्मचरित' के बाद लगभग आठवीं शताब्दी ईस्वी में लिखा गया प्रतीत होता है । ४
महाकाव्य परम्परा का विश्व जनीन महत्त्व
महाकाव्य साहित्य विश्व का एक लोकप्रिय साहित्य रहा है । अधिकांश देश में सामाजिक क्रान्ति को जागृत करने तथा प्रतीत के विश्वासों एवं घटनाओं को सुरक्षित रखने के माध्यम भी प्रायः महाकाव्य ही रहे हैं । " यूरोप, इंग्लैण्ड, जर्मनी, फ्रांस, आयरलैण्ड सहित भारत आदि देशों में निर्मित महाकाव्यों के निर्माण एवं विकास की दिशा समान ही है । पाश्चात्य एवं भारतीय महाकाव्यों के अङकुर हैं - 'शौर्य पूर्ण गाथाएं ' । वीर युग की शौर्यपूर्ण गाथाएं जिनमें युद्ध सम्बन्धी घटनाएं मुख्य हैं, शताब्दियों तक मौखिक रूप से कही जाने के कारण अन्त में
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१.
२.
द्रष्टव्य - भोलाशङ्कर व्यास, संस्कृत कवि दर्शन, वाराणसी, वि० स० २०१२, भूमिका, पृ० १६
द्रष्टव्य- - मुनि सुशील कुमार, प्राचीन जैनाचार्यों का संस्कृत साहित्य को योगदान, पृ० १६-२५
३. द्रष्टव्य - प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० ३५-४०
४. उपाध्ये, वराङ्गचरित भूमिका, पृ० ७४
५.
६.
Sidhant, N.K., The Heroic Age of India, p. 72
Steinberg, S.H., Cassell's Encyclopaedia of Literature, Vol. I, London, 1953, p. 195