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इच्छा, (१३) भोगाशा-भोग्य-पदार्थों की इच्छा, (१४) जीविताशा-जीवन की कामना, (१५) मरणाशा-मरने की कामना', (१६) नन्दिरागप्राप्त सम्पत्ति में अनुराग। __ लोभ के चार भेद-(१) अनंतानुबन्धी लोभ-मजीठिया रंग के समान जो छूटे नहीं, अर्थात् अत्यधिक लोभ, (२) अप्रत्याख्यानी लोभगाड़ी के पहिये के औगन के समान मुश्किल से छूटने वाला लोभ, (३) प्रत्याख्यानी लोभ-कीचड़ के समान प्रयत्न करने पर छूट जाने वाला लोभ, (४) संज्वलन लोभ-हल्दी के लेप के समान शीघ्रता से दूर हो जाने वाला लोभ।
नोकषाय-नोकषाय शब्द दो शब्दों के योग से बना है नो+कषाय। जैन दार्शनिकों ने 'नो' शब्द को साहचर्य के अर्थ में ग्रहण किया है। इस प्रकार क्रोध, मान, माया और लोभ इन प्रधान कषायों के सहचारी भावों अथवा उनकी उपयोगी मनोवृत्तियाँ जैन परिभाषा में नोकषाय कही जाती हैं। जहाँ पाश्चात्य मनोविज्ञान में काम-वासना को प्रमुख मूल वृत्ति तथा भय को प्रमुख आवेग माना गया है, वहाँ जैन दर्शन में उन्हें सहचारी कषाय या उप-आवेग कहा गया है। इसका कारण यही हो सकता है कि जहाँ पाश्चात्य विचारकों ने उन पर मात्र मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचार किया है, वहाँ जैन विचारणा में जो मानसिक तथ्य नैतिक दृष्टि से अधिक अशुभ थे, उन्हें कषाय कहा गया है और उनके सहचारी अथवा कारक मनोभाव को नोकषाय कहा गया है। यद्यपि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचार करने पर नोकषाय वे प्राथमिक स्थितियाँ हैं, जिनसे कषायें उत्पन्न होती हैं, तथापि आवेगों की तीव्रता की दृष्टि से नोकषाय कम तीव्र होते हैं और कषाय अधिक तीव्र होती हैं। इन्हें कषाय कारक भी कहा जा सकता है। जैन ग्रन्थों में इनकी संख्या नौ मानी गई है
१. हास्य-सुख या प्रसन्नता की अभिव्यक्ति हास्य है। जैन विचारणा के अनुसार हास्य का कारण पूर्व-कर्म या वासना-संस्कार है।
२. शोक-इष्टवियोग और अनिष्टयोग से सामान्य व्यक्ति में जो मनोभाव जाग्रत होते हैं, वे शोक कहे जाते हैं। शोक चित्तवृत्ति की विकलता का द्योतक है और इस प्रकार मानसिक समत्व का भंग करने वाला है।
३. रति (रुचि) अभीष्ट पदार्थों पर प्रीतिभाव अथवा इन्द्रिय-विषयों में चित्त की अभिरतता ही रति है। इसके कारण ही आसक्ति एवं लोभ की भावनाएँ प्रबल होती हैं।
४. अरति-इन्द्रिय-विषयों में अरुचि ही अरति है। अरुचि का भाव ही विकसित होकर घृणा और द्वेष बनता है। राग और द्वेष तथा रुचि और अरुचि में प्रमुख अन्तर यही है कि राग और द्वेष मनस् की सक्रिय अवस्थाएँ हैं जबकि रुचि और अरुचि निष्क्रिय अवस्थाएँ हैं। रति और अरति पूर्व-कर्म-संस्कारजनित स्वाभाविक रुचि और अरुचि का भाव है।
५. घृणा-घृणा या जुगुप्सा अरुचि का ही विकसित रूप है। अरुचि और घृणा में केवल मात्रात्मक अन्तर ही है। अरुचि की अपेक्षा घृणा में विशेषता यह है कि अरुचि में पदार्थ-विशेष के भोग की अरुचि होती है, लेकिन उसकी उपस्थिति सह्य होती है, जबकि घृणा में उसका भोग और उसकी उपस्थिति दोनों ही असह्य होती है। अरुचि का विकसित रूप घृणा और घृणा का विकसित रूप द्वेष है।
६. भय-किसी वास्तविक या काल्पनिक तथ्य से आत्म-रक्षा के निमित्त बच निकलने की प्रवृत्ति ही भय है। भय और घृणा में प्रमुख अन्तर यह है कि घृणा के मूल में द्वेष-भाव रहता है, जबकि भय में आत्म-रक्षण का भाव प्रबल होता है। घृणा क्रोध और द्वेष का एक रूप है, जबकि भय लोभ या राग की ही एक अवस्था है। जैनागमों में भय सात प्रकार का माना गया है, जैसे-(१) इहलोक भय-यहाँ लोक शब्द संसार के अर्थ में न होकर जाति के अर्थ में भी गृहीत है। स्वजाति के प्राणियों से अर्थात् मनुष्यों के लिए मनुष्यों से उत्पन्न होने वाला भय। (२) परलोक भय-अन्य जाति के प्राणियों से होने वाला भय, जैसे-मनुष्यों के लिए पशुओं का भय। (३) आदान भय-धन की रक्षा के निमित्त चोर-डाकू आदि भय के बाह्य कारणों से उत्पन्न भय। (४) अकस्मात् भय-बाह्य-निमित्त के अभाव में स्वकीय कल्पना से निर्मित भय या अकारण भय। भय का यह रूप मानसिक ही होता है, जिसे मनोविज्ञान में असामान्य भय कहते हैं। (५) आजीविका भय-आजीविका या धनोपार्जन के साधनों की समाप्ति (विच्छेद) का भय। कुछ ग्रन्थों में इसके स्थान पर वेदना भय का उल्लेख है। रोग या पीड़ा का भय वेदना भय है। (६) मरण भय-मृत्यु का भय; जैन और बौद्ध विचारणा में मरण-धर्मता का स्मरण तो नैतिक दृष्टि से आवश्यक है, लेकिन मरण भय (मरणाशा एवं जीविताशा) को नैतिक दृष्टि से अनुचित माना गया है। (७) अश्लोक (अपयश) भय-मान-प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचाने का भय।६
७. स्त्रीवेद-स्त्रीवेद का अर्थ है स्त्रीत्व संबंधी काम-वासना अर्थात् पुरुष से संभोग की इच्छा। जैन विचारणा में लिंग और वेद में अन्तर किया गया है। लिंग आंगिक संरचना का प्रतीक है, जबकि वेद तत्सम्बन्धी वासनाओं की अवस्था है। यह आवश्यक नहीं है कि स्त्री-लिंग होने पर स्त्रीवेद हो ही। जैन विचारणा के अनुसार लिंग (आंगिक रचना) का कारण नाम-कर्म है, जबकि वेद (वासना) का कारण चारित्रमोहनीय कर्म है।
८. पुरुषवेद-पुरुषत्व सम्बन्धी काम-वासना अर्थात् स्त्री संभोग की इच्छा पुरुषवेद है।
९. नपुंसकवेद-प्राणी में स्त्रीत्व सम्बन्धी और पुरुषत्व सम्बन्धी दोनों वासनाओं का होना नपुंसकवेद कहा जाता है। दोनों के संभोग की इच्छा ही नपुंसकवेद है।
१. तुलना कीजिए-जीवनवृत्ति और मृत्युवृत्ति (फ्रायड) २. अभिधान राजेन्द्र कोश, खण्ड ४, पृ. २१६१ ३. वही, खण्ड ४,पृ.२१६१
४. वही, खण्ड ७, पृ. ११५७ ५. वही, खण्ड ६, पृ. ४६७ ६. श्रमण आवश्यक सूत्र उपाध्याय अमर मुनि, भय सूत्र
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