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किसी गुण पर अहंवृत्ति, (२सर से श्रेष्ठ कहना, (२) पाना झुकना,
२. अप्रत्याख्यानी क्रोध (तीव्रतर क्रोध)-सूखते हुए जलाशय की भूमि में पड़ी दरार जैसे आगामी वर्षा होते ही मिट जाती है, वैसे ही अप्रत्याख्यानी क्रोध एक वर्ष से अधिक स्थाई नहीं रहता और किसी के समझाने से शान्त हो जाता है।
३. प्रत्याख्यानी क्रोध (तीव्र क्रोध)-बालू की रेखा जैसे हवा के झोंकों से जल्दी ही मिट जाती है, वैसे ही प्रत्याख्यानी क्रोध चार मास से . अधिक स्थायी नहीं होता।
४. संज्वलन क्रोध (अल्प क्रोध)-शीघ्र ही मिट जाने वाली पानी में खींची गयी रेखा के समान। इस क्रोध में स्थायित्व नहीं होता है। मान (अहंकार) ___अहंकार करना मान है। अहंकार कुल, बल, ऐश्वर्य, बुद्धि, जाति, ज्ञान आदि किसी भी विशेषता का हो सकता है। मनुष्य में स्वाभिमान की मूल प्रवृत्ति है ही, परन्तु जब स्वाभिमान की वृत्ति दम्भ या प्रदर्शन का रूप ले लेती है, तब मनुष्य अपने गुणों एवं योग्यताओं का बढ़े-चढ़े रूप में प्रदर्शन करता है और इस प्रकार उसके अन्तःकरण में मानवृत्ति का प्रादुर्भाव हो जाता है। अभिमानी मनुष्य अपनी अहंवृत्ति का पोषण करता रहता है। उसे अपने से बढ़कर या अपनी बराबरी का गुणी व्यक्ति कोई दिखता ही नहीं।
जैन परम्परा में प्रकारान्तर से मान के आठ भेद मान्य हैं-(१) जाति, (२) कुल, (३) बल (शक्ति), (४) ऐश्वर्य, (५) बुद्धि (सामान्य बुद्धि), (६) ज्ञान (सूत्रों का ज्ञान), (७) सौन्दर्य और (८) अधिकार (प्रभुता)। इन आठ प्रकार की श्रेष्ठताओं का अहंकार करना गृहस्थ एवं साधु दोनों के लिए सर्वथा वर्जित है। इन्हें मद भी कहा गया है। ____ मान निम्न बारह रूपों में प्रकट होता है-(१) मान-अपने किसी गुण पर अहंवृत्ति, (२) मद-अहंभाव में तन्मयता, (३) दर्पउत्तेजनापूर्ण अहंभाव, (४) स्तम्भ-अविनम्रता, (५) गर्व-अहंकार, (६) अत्युक्रोश-अपने को दूसरे से श्रेष्ठ कहना, (७) परपरिवावपरनिन्दा, (८) उत्कर्ष-अपना ऐश्वर्य प्रकट करना, (९) अपकर्ष-दूसरों को तुच्छ समझना, (१०) उन्नत नाम-गुणी के सामने भी न झुकना, (११) उन्नत्त-दूसरों को निम्न समझना, (१२) पुर्नाम-यथोचित रूप से न झुकना।
अहंभाव की तीव्रता और मन्दता के अनुसार मान के भी चार भेद हैं१. अनंतानुबन्धी मान-पत्थर के खम्भे के समान जो झुकता नहीं, अर्थात् जिसमें विनम्रता नाममात्र की भी नहीं है।
२. अप्रत्याख्यानी मान-हड्डी के समान कठिनता से झुकने वाला अर्थात् जो विशेष परिस्थितियों में बाह्य दबाव के कारण विनम्र हो जाता है।
३. प्रत्याख्यानी मान-लकड़ी के समान थोड़े से प्रयल से झुक जाने वाला अर्थात् जिसके अन्तर में विनम्रता तो होती है लेकिन जिसका प्रकटन विशेष स्थिति में ही होता है।
४. संज्वलन मान-बेंत के समान अत्यन्त सरलता से झुक जाने वाला अर्थात् जो आत्म-गौरव को रखते हुए भी विनम्र बना रहता है। माया
कपटाचार माया कषाय है। भगवती सूत्र के अनुसार इसके पन्द्रह नाम हैं२-(१) माया-कपटाचार, (२) उपधि-ठगने के उद्देश्य से व्यक्ति के पास जाना, (३) निकृति-ठगने के अभिप्राय से अधिक सम्मान देना, (४) वलय-वक्रतापूर्ण वचन, (५) गहन-ठगने के विचार से अत्यन्त गूढ़ भाषण करना, (६) नूम-ठगने के हेतु निकृष्ट कार्य करना, (७) कल्क-दूसरों को हिंसा के लिए उभारना, (८) कलप-निन्दित व्यवहार करना, (९) निह्नता-ठगाई के लिए कार्य मन्द गति से करना, (१०) किल्विधिक-भांडों के समान कुचेष्टा करना, (११) आदरणता-अनिच्छित कार्य भी अपनाना, (१२) गृहनता-अपनी करतूत को छिपाने का प्रयत्न करना, (१३) वंचकता-ठगी, (१४) प्रति-कुंचनता-किसी के सरल रूप से कहे गये वचनों का खण्डन करना, (१५) सातियोग-उत्तम वस्तु में हीन वस्तु की मिलावट करना, यह सब माया की ही विभिन्न अवस्थाएँ हैं।
माया के चार प्रकार-(१) अनंतानुबन्धी माया (तीव्रतम कपटाचार)-अतीव कुटिल जैसे बाँस की जड़, (२) अप्रत्याख्यानी माया (तीव्रतर कपटाचार)-भैंस के सींग के समान कुटिल, (३) प्रत्याख्यानी माया (तीव्र कपटाचार)-गोमूत्र की धारा के समान कुटिल, (४) संज्वलन माया (अल्प-कपटाचार) बाँस के छिलके के समान कुटिल। लोभ
मोहनीय कर्म के उदय से चित्त में उत्पन्न होने वाली तृष्णा या लालसा लोभ कहलाती है। लोभ की सोलह अवस्थाएँ हैं३-(१) लोभ-संग्रह करने की वृत्ति, (२) इच्छा-अभिलाषा, (३) मूर्छा-तीव्र संग्रह-वृत्ति, (४) कांक्षा-प्राप्त करने की आशा, (५) गृद्धि-आसक्ति, (६) तृष्णाजोड़ने की इच्छा, वितरण की विरोधी वृत्ति, (७) मिथ्या-विषयों का ध्यान, (८) अभिध्या-निश्चय से डिग जाना या चंचलता, (९) आशंसना-इष्ट-प्राप्ति की इच्छा करना, (१०) प्रार्थना-अर्थ आदि की याचना, (११) लालपनता-चाटुकारिता, (१२) कामाशा-काम की
१. भगवती सूत्र, १२/४३
२. वही, १२/५४
३. वही, १५/५/५
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