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आदर्श-ज्ञान
३० भी उनके साथ दीक्षा ले लें ताकि शीघ्र कल्याण हो । ___ इधर चैत्र कृष्ण ८ का दिन भी नजदीक आने लगा, हमारे चरित्रनायकजी के दिल में एक तो यह बात निश्चय नहीं हुई थी कि दीक्षा देशी साधुओं के पास लेनी चाहिये या प्रदेशियों के पास ? दूसरा राजकुंवर बाई गर्भित थीं, फिर भी दीक्षा लेने का आपका निश्चय दृढ़ बना हुआ था।
इधर मुनि श्रीरत्नचंदजी धूनाड़ा से विहार करते हुए चैत्र कृष्णा ५ को बीसलपुर पधारे उनको इस बातका पता नहीं था कि ग वरचंदजी की दीक्षा का प्रश्न इतना विकट बना हुआ है
और चैत्र कृष्णा ८ को ही दीक्षा लेने वाले हैं, पर भवितव्यता बड़ी बलवान होती है, इधर तो राजकुँवर के गर्भ का पतन हुआ
और इधर मुनि रत्नचंदजी का आगमन हुआ। इन दोनों कार्य में केवल ३ घंटे का ही अन्तर था अर्थात गर्भपतन सुबह ६ बजे हुआ और मुनिजी का पधारना ९ बजे हुआ । जब दो तीन घंटे में गर्भ की चर्चा ग्राम में फैली; तथा निमित्त कारण ऐसा ही था कि लोगों में यह गलत विचार फैल गया कि साधु रतनचंद जी गयवरचंदनी को दीक्षा देने को आये हैं, इस दुःख के मारे राजकुँवर के गर्भ का पतन हो गया है । इधर साधु रत्नचन्दनी गोचरी लेकर स्थानक में आते हैं उधर कई मेहसरनियां, सुनारनियां सेवगनियां, नाइनियां स्थानक के पास आकर रत्न चंदजी साधु को खूब दुर्वचनों से गालियां देने लगी कि, रे दुष्ट साधुओ ! तुम्हारी दया कहाँ गई, बिचारी राजकुँवर के गर्भ का पतन तुम लोगों ने ही करवाया है, इत्यादि।
साधु रत्नचंदजी इतना निर्मल और पवित्र साधु था कि उनको