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आदर्श ज्ञान द्वितीय खण्ड
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पके पास गए और फेटा वन्दना कर बैठ गये; किंतु सागरजी किसी पुस्तक का प्रुफ लेकर उसका संशोधन करने लग गये । जब सागरजी को बोलते नहीं देखा, तो मुनिश्री ने कहा आपने आगम छपवाकर जैन जनता पर बड़ा भारी उपकार किया है । __ सागरजी प्रफ नीचा रख कर बोले कि इस प्रकार सब साधुओं को शासन का कार्य करना चाहिये; पर कई साधु तो शासन को केवल भारभूत बन कर गृहस्थों के रोटले मुफ्त में ही खा रहे
____ मुनि०-हाँ साहिब, साधुओं को शासन का कार्य अवश्य क. रना चाहिये, जैसा कि आप कर रहे हैं ।
सागरजी-मुंह से कहने वाले बहुत हैं पर करते कौन हैं ? मुनि०-श्राप समझ गये कि सागरजी का कहना आत्मश्लाघा के रूप में है, क्योंकि शायद आप जानते होंगे कि शासनका कार्य केवल एक मैं ही कर रहा हूँ। मुनिश्री ने पुनः अर्ज की कि जैसे
आपने आगम टीका सहित छपाया है, उसी भाँति इसका प्रचलित भाषा में भाषान्तर कर दिया होता तो यह आगम सर्व समान को बड़ा उपयोगी सिद्ध होता।
सागरजी०-थोड़े गर्म होकर जबाब दिया कि मैं श्रागमों का भाषान्तर करना ठीक नहीं समझता हूँ, यदि कोई अज्ञानी मूल
और टीका से लाभ नहीं उठा सके, उसका मैं क्या करूँ ? उनको अभ्यास करना चाहिये, कितने ही लोग टीका वगैरहः का अभ्यास किये बिना ही सूत्र बांचने लग जाते है और बिचारे भोले जीव के सामने अर्थ का अनर्थ भी कर डालते हैं, जैसे तुमने यहाँ भग. यती सूत्र बांच के अभव्य जीवों के विषय में किया था।