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आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड
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आप थे भी अच्छे सुशील, आपकी प्रकृति सरल और साफ थी, सत्य कहने में कोई भी क्यों न हो वे किसी को भी परवाह नहीं करते थे । एक समय उन्होंने सेठजी फूलचंदजी को भी स्पष्ट कह दिया कि तीर्थ पर इस प्रकार अनुचित कार्य होना बहुत बुरा है, यदि ऐसा हुआ तो मैं यहां रहना नहीं चाहता हूँ ।
ओसियाँ की धर्मशाला के बाहर जो कुत्रा है उसका धर्मशाला के साथ पट्टा नहीं हुआ था, अतः जागीरदार ने अपना अधिकार जमाना चाहा । किन्तु धर्मशाला के पास को जभीन तदुपरान्त उसमें कुधा होने से अत्यन्त ही उपयोगी थी, अतः उसकी श्रावश्यकता थी, कुछ जमीन कोठरियों के पीछे थी, उसकी भी आवश्यकता थी । चुन्नीलाल भाई ने उसकी कोशिश कर उस जमीन को खरीद कर ली; इसमें भी मुनिश्री का ही उपदेश था ।
जिस पहाड़ी पर एक प्राचीन आचार्य की पादुके थे और वह कई वर्षों से यों ही जंगल में होने के कारण अपूज्य थे; मुनिश्री ने एक यात्रि को उपदेश देकर वहाँ एक छत्री भी करवा दी । उस पादुका पर एक शिलालेख भी था, जिसकी नकल मुनिश्री ने अत्यन्त परिश्रम से जी जो कि नीचे दी जाती है:
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सं० १२४६ माघ वदि १४ शनिवार दिने श्रीमज्जिनभद्रोपाध्याय शिषैः श्री कनकप्रभ महत्तर मिश्र कायोत्सार्ग कृत ।
धर्मशाला की जिस जमीन पर एक हॉल होने का निश्चय हुआ था, उसका कार्य भी प्रारम्भ हो गया; अर्थात् मुनिश्री के पधारने से ओसियां तीर्थ का उद्धार तथा प्रसिद्धि और बहुत ही उन्नति हुई ।
कई काठियावाड़ी भाई यात्रार्थ ओसियाँ आये थे, वे मुनीम