Book Title: Aadarsh Gyan
Author(s): Ratnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpmala

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Page 713
________________ आदर्श - ज्ञान - द्वितीय खण्ड ६१८ को आया जिसका नाम मोरचंद था; २१ वर्ष की आयुष्य थी, विवाह हुए को केवल दो वर्ष ही हुए थे; बारीकी से पूछने पर ज्ञात हुआ कि आर्थिक संकट के मारे यह पामर दीक्षा लेता है । दूसरे दिन उसकी औरत अपने भाई को साथ ले कर तारंगाजी ई और मुनिश्री से सब हाल कहा; मुनिश्री को बड़ी दया आई कि यदि इसको दीक्षा दे दी जावे तो सर्वप्रथम तो इस प्रकार से दीक्षा लेने वाला क्या दीक्षा पालेगा ? द्वितीय विचारी निराधर बाई का क्या हाल होगा; अतः आपश्री ने फोरचंद को अच्छी तरह से दीक्षा का स्वरूप समझाया और कहा कि तुम घर में रह कर ही त्याग वैराग्य रखोगे तो तुम्हारा कल्याण हो सकेगा, दीक्षा की भावना रखो, घर में रहकर अभ्यास करो; फिर क्षयोपस होगा तो दीक्षा आ भी जावेगी वरन परभव में दीक्षा लेना इत्यादि । धन्य है मुनिश्री की निस्पृहता को ! मुनिश्री ने सोचा कि एक ओर तो संड-मुसंड साधु माल उड़ा रहे हैं, तब दूसरी ओर आर्थिक संकट के मारे केवल पेट के लिए लोग साधु वेष पहिन कर उसको कलंकित करने को उतारू हो रहे हैं बस । समाज का पतन इसी कारणों से हो रहा है । आपने तागंगाजी में सुना कि इन पहाड़ों में एक कुंभारियाजी नामक जैनों का प्राचीन एवं प्रभावशाली तीर्थ है जहाँ किसी दिन जैनों के ३६० मन्दिर थे किन्तु ज्वाला मुखी के कारण अब केवल ५ मन्दिर बचे हुए हैं; आपका इरादा हुआ कि बारंबार तो घर आना मुश्किल है अतः ऐसे तीर्थ को क्यों छोड़ा जाये ? यद्यपि पहाड़ों में जाने में तकलीफ तो होगी, पर फिर भी रास्ता इधर से नजदीक पड़ेगा, आप तारंगाजी से विहार कर बाव और

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