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ओदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड
५७८ है । यदि ढुंडियों में से स्वामि बुटेरामजी, आत्मारामजी, मूलचंदजी तथा वृद्धिचंदजी नहीं आये होते तो आप संवेगी आज यतियों के रूप में ही पाये जाते; समझे न सागरजी महाराज ? । ___ सागरजी तो इतने आवेश में आगये कि अपने बोलने का भान तक भी मूल गये कि मैं क्या बोलता हूँ। आप बोले कि बुटेरामजी, श्रात्मागमजी वगैरः ने ढूंढ़ियों में से श्राकर क्या किया है ? और तुम भी ढूंढ़ियों से आकर क्या कर सकोगे ?
मुनि०--ढूंढ़ियों से जितने योग्य पुरुष आये हैं, उन्होंने पतित होते हुए संवेगियों का उद्धार किया है । और आगे कुछ कहते ही थे परः____ इस प्रकार जोशीला वार्तालाप होता सुन कर योगीराजश्री ने सोचा कि उधर तो सागरजी जिद्दी आदमी हैं, इधर मुनिजी भी बोलने में पीछे रहने वाले नहीं हैं; अतः कहीं बात ही बात में अनर्थ न हो जोय, एतदर्थ योगीराज ने कहा कि मुनिजी इधर आओ, कुछ काम है; मुनिश्री उठकर गुरु महाराज के पास गये । ___ योगी-सागरजी विद्वान हैं, तुम इनके साथ वाद विवाद क्यों करते हो ?
मुनि:- नहीं साहिब, मैं वाद-विवाद करने को नहीं गया था, मैं तो मेरे प्रश्नों का उत्तर लेने को गया था, किंतु उन्होंने जब विषयांतर बातें निकाली तो उनका उत्तर देना मेरा कर्तव्य था,
और मैंने जवाब दिया भी था, इसमें मेरा क्या कसूर है अपने २ गौरव की रक्षा करना सब के लिये समान बात है !
योगी-पर जहाँ राग द्वेष की वृद्धि हो वहाँ क्षण मात्र भी नहीं ठहरना चाहिये, यही मेरी आज्ञा है ।