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आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड
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बाद में पज्यजी ने अपने भक्त श्रावकों को समझा दिया कि इस प्रकार का वितंडावाद करने में कर्म बन्ध के अतिरिक्त कोई लाभ नहीं है। ___ श्रावक-किंतु यदि सूत्रों के पाठ से मूर्ति का खण्डन होता हो तो चार मान्यवरों के सामने सूत्र पाठ बतलाने में अर्थात् शाखा थं करने में क्या नुकसान है ? __पूज्य०-सूत्र तो स्याद्वाद है और इसमें सब तरह के पाठ हैं, जिसको जिस पाठ की आवश्यकता हो वह निकाल कर आगे कर देते हैं।
श्रावक-क्या सूत्रों में मूर्तिपूजा के भी पाठ हैं ? तज्य०-हाँ ,सुरियाभदेव या द्रौपदी के अधिकार में आता है। तथा जीवाभिगमसूत्र में 'धूवदाउणं जिणवराणं,' पाठ है अतः जिन प्रतिमा को देवताओं ने धूप देने का भी लिखा है। ___श्रावक-एक दिन गयवरचंदजी ने अपने व्याख्यान में कहा था कि जिन-प्रतिमा जिन-सारखी है, मैं सूत्रों से सिद्ध कर सकता हूँ, तो क्या सूत्रों में जिन-प्रतिमा जिन-सारखी कही है ? ____ पूज्य-हाँ, यदि जिन-प्रतिमा को जिन-सारखी मान लें तो इससे क्या हुआ, दरबार की फोटो ( तस्वीर ) दरबार जैसी हम मान भी लें तो फोटो दरबार का काम थोड़े ही दे सकती है ?
श्रावक-तब तो जिन-प्रतिमा को जिन-सारखी मान लेने में कोई नुक्सान नहीं है न ?
पूज्य-नहीं, मैं भी जिन-प्रतिमा को जिन-सारखी मानता हूँ। मुख्यतः अपना पक्ष तो यह है कि भगवान का धर्म हिंसा में नहीं, अपितु दया में है, इसको कोई इन्कार नहीं कर सकता है ।