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आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खंण्डं
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और उसके दिये हुए रुपयेको हाथों से उठाकर आलमारी में रखना ? _____ दान-इसमें हमारा क्या स्वार्थ है इस श्राविका ने ज्ञान के लिये रुपये दिये हैं कोई श्रावक न होने के कारण मैंने रुपये आ. लमारी में रख दिये हैं। ___ माणक-इस प्रकार आपने कितने रुपये एकत्रित किये हैं जिसका कुछ हिसाब भी होगा ? ___ दान-हिसाब पूछने वाले तुम कौन हो ? उन रुपयों की पुस्त के मंगवानी हैं और भी हमारे पास बहुत पुस्तकें हैं ।
माणक-वे पुस्तकें हैं किसकी ? · दान-हमारी
माणक-इस प्रकार लाखों रुपयों की पुस्तकों को तुम अपनी बतलाते हो तो क्या इससे तुम्हारे महाव्रत रह सकते हैं ? क्यों कि यह तो परिगृह धारियों के ही लक्षण हैं।
दान-इससे क्या हुआ साधु पुस्तकें तो रखते ही हैं । माणक-पर इसकी कुछ मर्या भी है ?
दान-क्या एक हमारे ही पुस्तकें हैं ? विजयनेमि सूरि के तो हमारे से भी कई मुणी अधिक पुस्तकें हैं। ___माणक-मैं व्यक्तिगत बात नहीं करता हूँ, पर मेरा कहना है कि साधु पुस्तकों पर अपना हक रखता है पर उन्होंने किस प. रिश्रम से द्रव्योपार्जन कर पुस्तकों का संग्रह किया है ? वास्तव में पुस्तकें संग्रह करने में श्री संघ का ही द्रव्य लगा है। अतः ऐसे पुस्तकों के भंडार श्रीसंघ के अधिकार में क्यों नहीं रखा जावे ? जिसने कि किसी भी साधु को पुस्तक चाहिये तो सुविधा से मिल जावे, अन्यथा आपके भंडार में तो व्यर्थ ही पुस्तकें सड़ती हैं