________________
आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड
५६८
मुनिश्री चलने में भी बड़े तेज निकले, कार्तिक चतुर्मास गुरुजी के शामिल किया था, बाद में इतनी यात्रा करके भी फाल्गुन चतुर्मास गुरुजी की सेवा में आकर कर लिया आपके पधारने पर पुनः आपका व्याख्यान प्रारम्भ हुआ, क्योंकि जनता को आपका व्याख्यान पसंद एवं प्रिय था। ___ चतुर्मास में प्राचार्य श्रीविजय धर्मसृरिजी ने पालीताना से योगीराज ऊपर एक पत्र लिखा था कि सुरत में बहुत से पुरुष धनाड्य हैं, यशोविजय प्रन्थमालादि संस्थानों के लिए उपदेश कर महायता भिजवाना । योगीराज इन बातों से हजार हाथ दूर रहते थे, उन्होंने मुनिश्री को बुलाकर कहा, "जोओ टुकानदारी ना काम" श्राचार्यश्री का पत्र बंचाया और साथ में आपने उत्तर लिखा था वह भी बंचाया, जिसमें आपने लिखा था कि, पैसा छोडीने अमें योगी थया लिए, अर्थात् अमारा तकदीर मां पैसा नथी, पण योग लखेलो छे, हुँ कोई ने पैसा नो उपदेश आप तो नथी अने कदी आपुं तो मारे पासे कोई लोग आवशे पण नहीं, अटले चतुर्मास उतरी जाय, पच्छी आप स्वयं अत्र पधारीने उपदेश आपो, अने दुकान नो काम चलाओ । पत्र पढ़कर मुनिश्री ने विचार किया कि खरो-खरी महात्मा यही है।
पालीताणा का चतुर्मास के पश्चात् सूरिजी ने सुरत की ओर विहार किया। चैत्र शुक्ला १ के दिन इन्द्रविजयजी, विद्याविजयजी, न्यायविजयजी और एक अन्य साधु अर्थात् चार साधु सुरत आये। कदाचित् पहिले सूचना न मिलने से कोई भी सामने नहीं गया, वे गोपीपुरा नेमुभाई की बाड़ी में जाकर ठहर गये । जब योगोराज को मालूम हुई तो मुनिश्री को साथ लेकर आप गोपीपुरा