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भादर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड
४९४ साधु-केम पोरवाल हरिभद्रसूरि अने श्रीमाल उदयप्रभसूरि ने बनाव्या छ। तो तमे स्वयप्रभसूरि नो नाम केम बतायो छो ?
मुनि-हरिभद्रसूरि कियारे थया ? साधु-वि० सं० ५८५ नो समय छ। (वि० सं० ११५) मुनि-शत्रुञ्जय नो उद्धार जावड़ पोरवाल ने क्यारे कराव्यो ? साधु-वि० सं० १०८ में । मुनि- त्यारे हरिभद्रसूरि थी पूर्वे पोरवाल हता खरा न ? साधु-हाँ आ प्रमाणे तो थावाज जोइये ।
इतने में लोहारनी पोलना मुनिश्री सिद्धिविजयजी मुंशी बीच मां ही बोली उठ्या; 'साधुओं तमने खबर नथी के उपकेश गच्छ सब गच्छों में जेष्ठ अने पूराणा गच्छ छे; रत्नप्रभसूरि पार्श्वनाथ ना संता निया हता; ओसा नगरी में ओसवाल तेओने ज बनाव्या छ । इत्यादि बहुत समझाया फिर समय थोड़ा रहने से सब साधु तथा मुनि अपने स्थान चले गये, किंतु प्रत्येक उपाश्रय में यह एक नई चर्चा ही छिड़ गई कि एक उपकेशगच्छना साधु यहाँ आव्या छ । ___ एक दिन मुनिश्री भंडारी जी को साथ ले कर लालभाई के बड़े मुनिश्री कपूरविजयजी के पास गये, आप बातें करते ही थे कि इतने में कई काठियावाड़ के नवयुवक श्रावक आये और उन्होंने अपनी दुःख गाथा मुनिश्री को सुनाई कि अब हमारी स्थिति ईसाई या आर्यसमाजी बनने को आ पहुँची है, फिर भी हम जैन धर्म छोड़ना नहीं चाहते हैं। मुनिश्री ने सेठ को बुला कर कहा, तुम्हारे मिलों में हजारों नौकर हैं, इन ११ जैनों को भी नौकरी दे धर्म से पतित होते हुओं की रक्षा करो। सेठजी ने मुनिश्री कर आज्ञा को शिरोधार्य कर उनको एक रुक्का लिख कर मिल में