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भादर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड
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ओर से भंडारीजो को बंबई का आमन्त्रण होने लग गया ।*
दूसरे दिन शुक्ल पूर्णिमा को सूरत नगर में प्रवेश करना था, सम्मेला के गाजा-बाजा, नक्कार-निशान और मोटरें 'कतार' ग्राम तक श्रा पहुंची थी । मोटरों को इस प्रकार अलंकृत की गई थी कि किसी मोटर में सुरती लालाओं के दास लाख का आभूषण तो कि सी के आठ लाख का, तो किसी के दो लाख का । सब मोटरें बच्चों से भरी थी; ऊपर से फुलवारी की रचना इस प्रकार की थो की जिसको देख कर लोग चकित हो जाते थे; अर्थात इन्द्र की सवारी का ही भान होता था।
सुरत और कतारग्राम, तक रास्ते में मनुष्य ही मनुष्य दृष्टिगोचर होते थे; गाजे बाजे से गगन गूंज उठा था, पास २ में भी एक दूसरे की आवाज नहीं सुन सकता था, केवल ४०० बाजा तो २५ सम्मेले के ही थे; शेष बेन्ड और देशी बाजा तो अलग ही थे।
वह समय भंडारीजी की क्सौटी का था कारण आपके ४ पुत्रों से दो तो पढ़ाई करते थे, दो बाइयां छोटी र्थी इन सबके विवाह भी करने थे बड़ा पुत्र का देहान्त हो गया था एक को गोद दे दिया था अतः सबका खर्च भंडारीजी पर ही था भंडारीजी इनने धर्मचुस्त और खरे भादमी थे कि इस विकटावस्था में भी अपने पथ से एक रात भी विचलित नहीं हुए इतनाही क्यों पर इस बात का कभी विचार भी नहीं किया पर अपने इष्ट नियम में अडिग रहे इसका ही फल है कि बंबई जा कर आप ने दलाली करनी शुरु की जिससे सब कार्य कर पाये और भाप अपना जीवन इतनी शांति और धर्म कार्यों में गुजारा कि जिसका अनुमोदन अच्छे २ मुमिराज ही करते रहे । अखिर सब साहबी में आप सं० १९९४ का आसोज शुद्ध ५ को स्वर्गवास सिधार गये आपके धार्मिक जीवन का विस्तार तो मैं आगे . चल कर यथा प्रसंग पर ही करूंगा।