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सागरानन्द सूरि से प्रश्न
सागरजी के व्याख्यान के सब समाचार कह सुनाये । इस पर मुनि श्री ने अभव्य जीवों के विषय में कुछ प्रश्न तैयार कर उसकी ए. क नकल तो भंडारीजी को भेजदी कि आप सागरजी के पास जा कर इन प्रश्नों का उत्तर लिखवा कर भिजवा देना, और एक नकल सुरत के श्रावक को दे दी कि तुम बंबई जाओ तो सागरजी से इन प्रश्नों का उत्तर लिखवा कर मुझे भेज देना । उन प्रश्नों का असली कागज मुनिश्री ने अपने पास रख लिया था जिसकी नकल यहां दे दी जाती है।
(१) क्या दीक्षा लेने वाला अभव्य यह जानता है कि मैं अभव्य हूँ? . (२) क्या दीक्षा लेने वाला साधु यह जानता है कि जिस व्यक्ति को मैं दीक्षा देता हूँ, वह भव्य है या अभव्य ?
(३) आपने स्वयं मोक्ष की अभिलाषा से दीक्षा ली है और नौ तत्व की सरधना रख कर प्ररूपना भी करते हैं तो आप भव्य हैं या अभव्य ? यदि आप शायद अभव्य ही हैं तो आपके मत अनुसार अभव्य भी दीक्षा ले कर आपकी भांति चारित्र पालें या प्ररूपना करें तो कर सकता है या नहीं ? कारण यह तो आप फरमाते ही हैं कि अभव्य के उपदेश से अनंत जीव मोक्ष चले गए हैं।
(४) अभव्य जीव नौवें पूर्व की तीसरी आचार वस्तु का ज्ञान पढ़ता है जो उस ज्ञान के सामने आपका ज्ञान समुद्र में एक बूद जितना भी नहीं हैक्या वह अभव्य आपके जैसी प्ररूपना नहीं कर सकता है ?
(५) शायद आप कहोगे कि अभव्य रूपना तो शुद्ध करता है पर उसकी श्रद्धना शुद्ध नहीं होती है, तो यह भी ठीक नही है, क्योंकि: