________________
४३९
फलोदी के समाचार
बडी मुशकिल से मिलता था। केवल यही बात नहीं थी कि आपश्री के व्याख्यान में मात्र मूर्तिपूजक जैन ही आते थे पर यहां तो जैन जैनेतर स्थानकवासी व्यापारी मुत्सद्दी वगैरहः सब लोग आते थे । कई दर्जन तो वकील आपके व्याख्यान में हाजिर रहते थे ।
फलौदी के वर्तमान जोधपुर में आया हो करते थे जिस में यह भी समाचार मिला कि सूरिजी के नाक में दम आ गया है और वे कहते हैं कि मैंने मेरा सत्य व्रत भी खोया, ज्ञानसुंदरजी जैसे एक विद्वान साधु को नाराज भी किया, अतः रूपविजय को दीक्षा देने में बड़ी भारी ग़लती की है। इधर रूपविजय का एक पत्र मुनिश्री के पास आया जिसमें उन्होंने लिखा कि गुरू महाराज मैंने आपकी शिक्षा का अनादर कर बहुत ही बुरा किया है, मैं यह नहीं समझता था कि यह पीत वस्त्रधारी संवेगी साधु . ऐसे धूर्त होते हैं कि पहले तो मुझे मीठे मीठे वचनों से खूब फुसलाया और अब मेरे साथ इस प्रकार का व्यवहार करते हैं कि
तो मैंने ढूंढ़ियों में इस बात का अनुभव किया था और न आप के पास रह कर देखा था । मैं बड़ा ही दुःखी हूँ । इस समय चातु मस है वरन मैं आपकी सेवा में जरूर श्री जाता यहाँ तो सब के सब गुजराती हैं मैं मेरा दुःख कहूँ भी किसको इत्यादि समाचार पढ़ मुनिश्री ने कहलाया कि मैंने तो तुमको पहले ही कह दिया था पर तुम आडम्बर देख वचन दे कर भी मुझे भूल गये इसी का ही फल है । पर खैर अब तुम मेरे काम के तो नहीं रहे हो । मेरा तो यही कहना है कि साधु हुए हो तो अन्य परिसहों के साथ इसको भी सहन कर लो और जिसको तुमने अपने गुरु बनाये हो उनकी आज्ञा का आराधन करो, अपनी प्रकृति