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जैनेत्तरों के अभिप्राय
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केवल भद्रिक लोग ही इनके फंदे में फंस कर जैन धर्म की अवहेलना करवाते हैं, इत्यादि उपदेश देकर जयध्वनि के साथ मुनिश्री अपने श्रावक वर्ग के साथ धर्मशाला पधार गए ।
जिन जैनेतर लोगों ने मुनिश्री का उपदेश सुना वे भी समझ गए कि दूँ ढ़िये लोग मैले-कुचैले रह कर धर्म का सत्यानाश करते हैं। क्या ऐसा भी कोई धर्म हो सकता है कि टट्टी जा कर पैशाब से शौच करे। बिचारे भंगी लोग टटटी झाड़ते हैं पर शौच तो वे भी पान से ही करते हैं। ढूँढ़ियों ने तो गजब कर डाला, दुनिया के इतिहास में इन्होंने अपना नाम लिखा कर तो आर्य धर्म और भारत भूमि को भी कलंकित कर लज्जाई है ऐसे पुत्रों को जन्म देनेवाली माताएं यदि बांझ ही रह जातीं तो अच्छा था ! अर्थात ' जितने मुँह उतनी ही बातें ' वाली कहावत चरितार्थ होती थी; पर किस किस के मुँह को बंद किया जाय । इतना होने पर भी देशी स्मुदायवाले मुनिश्री के व्याख्यान में श्री भगवती सूत्र सुनने के लिए श्रया ही करते थे, क्योंकि वे भी प्रदेशियों की धूल उड़ाने में ही थे ।
मुनिश्री अच्छे विद्वान एवम् वक्ता थे आपके व्याख्यान की पब्लिक खूब प्रशंसा कर रही थी, सत्याग्रह होने से एक व्याख्यान न्याति नौहरा में दूसरा कटरा में और तीसरा गीरदी कोटे में हुआ जिसका प्रभाव जनता पर इस प्रकार हुआ कि वे धर्मशाला में आ आ कर आपकी देशना सुनने लगे और जैनधर्म और मुनिश्री की भूरि भूरि प्रशंसा करने लगे । क्योंकि मुनिश्री के व्याख्यानों में तात्विक दार्शनिक राष्ट्रीय औपदेशिक और वर्तमानसमय सुधार विषय रहा करती थी कि सबको रुचीकारक थी