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आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड
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की खबर होते ही सादड़ी और मुड़ाग के बीच नर-नारियों का तांता सा लग गया क्योंकि सादड़ी वालों को आपके पधारने की कई दिनों से आशा एवं अभिलाषा थी; दूसरे ढूँढ़ियों के साथ झगड़ा भी चल रहा था, उस समय उनको एक ऐसे उपदेशक की आवश्यकता थी कि जिसको श्राप पूर्ण करने में सर्व प्रकार से समर्थ थे । सादड़ी वालों ने बड़े ही गाजे-बाजे और धूमधाम से नगर-प्रवेश का महोत्सव किया। सब से पहले दिन के उपदेश से ही लोग चकित हो गये । बाद प्रभावना के अन्त में सभा विसर्जन हुई, अब तो हमेशा बिना ही प्रभावना व्याख्यान में उपाश्रय भर जाने लगा। आखिर उपाश्रय में परिषदा नहीं समाई, इस हालत में व्याख्यान पब्लिक बाजार में होने का निश्चय हुआ, जिस दिन बाजार में व्याख्यान था, उस दिन आप प्रातःकाल थडिले भूमिका पधारे, वहाँ दुढिया साधु बख्तावरमलजी मिला, वह पहिले तो खूब प्रेम के साथ बातें करता रहा, किन्तु जब वे शौच करके पास में आया और हाथ धोने लगे तब मुनिश्री ने पूछा कि पानी है या नौपानी, इस पर ढूढकजी चिढ़ पड़े और क्रोध में लाल ताते होकर कहने लगे कि
बख्तावरमल:-अरे संवेगड़ों ! तुम्हारे शास्त्रों में रात्रि के समय कितना पानी रखना लिखा है ?
मुनि:-आपके शास्त्र में रोटी कितनी खानी लिखी है ? बख्ताः -रोटी जितनी आवश्यक हो उतनी खा सकते हैं । मुनि०-पानी भी जितना चाहिये उतना रख सकते हैं । बख्ता०-क्या तुम जड़ मूर्ति को मानते हो ? मुनि० -तुम्हारे सूत्रों के पाने जड़ हैं य चैतन्य ?