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आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड
४३४ मुनि:-यदि तुमारी इच्छा हो तो खुशी से जाओ, पर मेरे वचन को तुम ध्यान में रखना कि यह संवेगी साधु हैं तुमको लालच दे कर न अपना लें और तुम इनके धोखा में न आ जाओ। ____रूप.-नहीं महाराज आप खात्री रखें। जब तक मैं जैसलमेर से आ कर आपसे न मिल लूं वहां तक मैं आपका ही शिष्य हूँ
और जो कुछ करना होगा आपकी आज्ञा बिना कुछ भी नहीं करूंगा। ____ मुनि:-रूपसुन्दरजी मैं तुमको केवल शिष्यमोह से ही नहीं कहता हूँ पर खास तुमारे हित के लिए कहता हूँ कि तुम जो आत्मकल्याण हमारे पास में रह कर करोगे वह दूसरी जगह रह कर नहीं कर सकोगे, कारण इन संवेगियों का चारित्र एवं आचार व्यवहार इतना शिथिल और दोषित है कि पास में रहने वाला भी पासत्था बन जाता है । और मैं फिर तुमसे यह भी कह देता हूँ कि तुमारी प्रकृति बहुत जल्द है। मैंने तो हर प्रकार से तुम्हारा निर्वाह कर लिया है पर दूसरों के पास रह कर इस प्रकार व्यवहार न रखना वरन लोग कह देंगे कि ढूँढ़ियों में सब साधु ऐसे ही होते होंगे अतः आप शान्तचित से रहना । ___ रूपः-गुरु महाराज श्रापका कहना मैं कभी नहीं भूलूँगा। आप एकले रहेंगे इस बात का तो मुझे रंज जरूर है पर आप एक मास तक श्रोसियाँ ही विराजे । मैं एक मास के करीब में आपकी सेवा में आ जाऊंगा। गुरु महाराज आपका मेरे पर बड़ा भारी उपकार है जिसको मैं कभी भूल ही नहीं सकता हूँ। और आज मैं जाता हूँ वह भी आपकी आज्ञा से ही जाता हूँ। ___मुनि:-तब तैयारी करो, तुम्हें जो कुछ चाहिये वह ले लो और विहार के लिए कमर बाँध लो,सरजी भी तैयारी कर रहे हैं।