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आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड
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गुरुवर ने गच्छों के झगड़े से बचाने के लिये ऐसा फरमाया है ।
सूरिजी-तुम्हारा शिष्य रूपसुंदर हमारे साथ जैसलमेर चलने को कहता है, तुम्हारी क्या मरजी है ?
मुनि०-आप समझ गये कि यह हथा मारने की बात है, फिर भी मुनिश्री ने कहा कि मैं और रूपसुंदरजी तो अभी जैसलमेर की यात्रा कर आये हैं।
सरिजी-उनकी इच्छा हमारे साथ पुनः यात्रा करने की है। मुनि०-केवल यात्रा करने की है या कोई दूसरी बात भी है ?
सूरिजी-हाँ वह कहता था कि मैं आपके पास रहने की इच्छा करता हूँ।
मुनि०-आपने उसे क्या कहा ?
सरिजी-मैंने कहा कि तुम्हारे गुरु से मैं पूछगा, यदि वे कहेंगे तो तुमको साथ ले चलंगा; अब तुम्हारी क्या इच्छा है ? ___ मुनि०-आप जैसे पज्य महात्मा एवं भाग्यशालियों के दर्शन से कुछ लाभ की आशा थी, किंतु आपने तो मेरी ही जेब ( पामेंट ) काटने की तजवीज की है। साहिबजी ! मारवाड़ में फैले हुए अज्ञान को हटाने के लिये मैं तो आपसे कुछ सहायता लेना चाहता था; किंतु आपने तो मेरे उत्साह को मिट्टी में हो मिला देने का साहस कर डाला।
सरिजी- ज्ञानसुंदरजी मैं आपके उत्साह को नहीं तोड़ता हूँ, एक रूपसुन्दरजी ही क्यों किंतु मेरा खयाल तो है कि तुम भी मेरे पास आ जाओ तो मैं तुमको पन्यास एवं आचार्य पदवी दे दूं ताकि तुम मारवाड़ का ही क्या अपितु जैन समाज का भला कर सकोगे। इतना ही क्यों, किंतु आत्मारामजी की भांति सर्वत्र