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पू० कहने से हूँ० श्रावकों को शंका
श्रावक - तो फिर कल इस विषय का ही शास्त्रार्थ क्यों न किया जाय, नहीं तो मंदिरमार्गी कह देवेंगे कि तुम्हारे कहने से हम पूज्यजी के पास गये पर तुम्हारे पूज्यजी ने पूज्य ० - चर्चा में कर्चा है; अपने करना है और वह दया में है समझे न ?
शास्त्रार्थ नहीं किया । को तो आत्म-कल्याण
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श्रावक - श्रावकों को इतनी श्रवश्य शंका हो गई कि पूज्य महाराज इतने विद्वान् होने पर भी शास्त्रार्थ करना नहीं चाहते हैं और हरेक बात में टाल-मटोल कर देते हैं, अतः शास्त्रों में मूर्त्ति का विषय श्रवश्य है और मंदिरमार्गियों में इतने बड़े २ श्राचार्य हुए हैं, आत्मारामजी जैसे धुरंधर विद्वान् व सैंकड़ों साधु अपने में से निकल कर मूर्तिपूजक समुदाय में चले गये हैं, हजारों वर्षों के मंदिर विद्यमान हैं । यही कारण है कि जिनसे पूज्यजी महाराज चर्चा नहीं करते हैं । दूसरे गयवर चंदजी को हाथों से पढ़ाया है अतः वे घर की सब बातें जानते भी हैं । स्त्रैर, समय हो गया, चलो ।
दूसरे दिन प्रातःकाल ही पूज्यजी ने धनराजजी साधु को गथवरचंदजी के पास भेजा और कहलाया कि यहाँ तुम्हारा राजपाट है तुम कहो तो हम लोग ठहरें; यदि तुम चर्चा एवँ शास्त्रार्थ का बहाना लेकर क्लेश करवाना चाहते हो तो हम विहार कर जावें । धनराजजी ने मुनिश्री को पूज्यजी के सब समाचार कहे । मुनिश्री ने वापिस कहलाया कि पूज्यजी का मेरे पर बहुत उपकार है, मैं उसको भूल नहीं गया हूँ, तथा आपके श्रावक मेरी ही निंदा करें तो मैं सहन कर सकता हूँ किंतु हमारे कारण हमारे देव, गुरु, धर्म की निंदा करते हैं उसको मैं सहन नहीं कर सकता