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आदर्श-ज्ञान
मिलता था, पर हमारे चरित्र नायकजी दर्शनार्थ श्राये हुए विदेशी मेहमान थे, अतः आपको पूज्यजी के नजदीक ही स्थान मिल गया । पूज्य जी की व्याख्यान शैली जैसी मधुर थी वैसी ही रोचक भी थी उस दिन व्याख्यान का विषय था " व्रत भंग और आलोचना " यदि कोई व्यक्ति व्रत लेकर भंग करदे और पुनः उसकी आलो चना कर प्रायश्चित न ले तो वह विराधी हो संसार में अनंतकाल परिभ्रण करता है, इत्यादि, इस पर हेतु युक्ति विषय को इतना भयानक बना दिया कि जिससे हो उसको आलोचना लेना अनिवार्य हो गया । हमारे चरित्र नायकजी ने ज्यों ही व्याख्यान सुना त्यों ही आपका रोम रोम खड़ा हो गया, कारण आपको अपने किये हुए चार खन्धों के त्याग और उसका भंग स्मृति में आ गया, और मन हो मन पश्चाताप करने लगे । आपकी भावना यहाँ तक होगई कि व्रत भंग की आलोचना कर इसका प्रायश्चित आज ही पूज्य श्री से ले लेना चाहिये । समय पर व्याख्यान समाप्त हुआ, अतिथी गण भोजन करने को गये । रतलाम वासियों ने सब के लिये भोजन एक स्थान पर होने का प्रबन्ध कर रखा था पर चतुर्मास के दिनों में लीलण फूलन और त्रस जीवों की उत्पत्ति और विधर्मी रसोइयों के कारण उनकी होती हुई हिन्सा को देख घृणा श्राये बिना भी नहीं रहती थी, क्योंकि एक तो दर्शनार्थ आये हुओं की संख्या बहुत थी, द्वितीय रसोइये सब विधर्मी थे, तीसरे चतुर्मास के दिन थे । धर्म के नाम पर यह भ्रूण हिंसा अधर्म का ही पोषण करती थी, खैर सबके साथ आपने भी भोजन किया पर भोजन के समय आप के मन में तो वही व्याख्यान की आलोचना की ही दोरा दोर
दृष्टान्त लगा कर व्रत भंग हुआ