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আদা-সাল
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भी तैयार हूँ । बस, दोनों मिल कर कर्मचन्दजी महाराज के पास आये और सब हाल कह सुनाया। इस पर स्वामीजी ने कहा कि तुम मोड़ीरामजी को तैयार करो, यदि वे तैयार हो जावें तो मैं भी तैयार हूँ।
गयवरचन्दजी ने अपने गुरु मोड़ीरामजी के पास जाकर सब हाल कह सुनाया और कहा कि यदि आप समझते हो कि जन सूत्रों में मूर्तिपूजा का विधान है; और उत्सूत्र भाषण करने में अनम्त संसार की वृद्धि होती है, तो फिर ऐसा वेष बन्धन रखने में फायदा भी क्या है ? _____ मोड़ीरामजी-मैं जानता हूँ कि सूत्रों में जगह जगह मूर्तिपूजा का उल्लेख है, पर मैं वेष छोड़ना नहीं चाहता हूँ। कारण मेरी इतनी बुद्धि नहीं है कि मैं संवेगियों का प्रतिक्रमणादि क्रिया काण्ड सीख सकू। यदि वेष नहीं छोड़े तो भी श्रद्धा शुद्ध होने से कल्याण हो सकता है ! शास्त्रकारों ने तो स्वलिंगी, अन्यलिंगी
और गृह-लिंगी सिद्ध होना बतलाया है । मैं तो तुमको भी यही कहता हूँ कि तुम्हारी श्रद्धा भले ही मूर्ति की हो, पर तुम इसी वेष में रहकर तप संयम से अपना कल्याण करो।
गयवर०-अब यह बात तो समुदाय में प्रसिद्ध हो ही गई है कि इन साधुओं को श्रद्धा मूर्तिपूजा की है, जहां जावें, वहां प्रश्न पछने वाले मिलते हैं और फिर उत्तर देने में एक पक्ष तो लेना ही पड़ता है । सत्य कहने पर विवाद तथा असत्य कहने पर आत्मा का नुक्सान है, इसलिए एक पक्का निश्चय कर लेना ही अच्छा है दूसरे अपन लोग घर छोड़कर किसी के यहां मूल्य पर तो बिक ही नहीं गये कि जो असत्य को भी सत्य ही बतलावें। मेरी आत्मा