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पृज्य पदवी की प्रार्थना जाते हैं तो बालों को काटने की जरूरत होती है या सिर ही काट डालने की । ठीक इसी प्रकार जब मन्दिरों में धूमधाम बढ़ गई थी तो धामधूम मिटानी चाहिये थी न कि मन्दिर-मूर्ति को छोड़ कर दूर बेठ जाना । इसी तरह से जब मूर्तिपूजक साधु लोग हाथ में मुँहपत्ती लेकर खुले मुँह बोलते थे तो उसका ही विरोध करना था । भला उसका विरोध न करके मुंह पर डोराडाल मुँहपत्ती रातदिन बांध कर कुलिंग धारणा करना कहाँ तक उचित था ? इसके अलावा यह कहना कि मूर्ति सूत्रों में है और हम नहीं मानते, तो मेरी माँ और बांझड़ी' वाली कहावत को ही चरितार्थ करना है। खैर, मैं आपसे इतना ही पूछता हूँ कि आप अभी जब मन्दिर में गये थे तो वहाँ आपके विचार एवं भावनाएँ जैनधर्म के अनुकूल रही या प्रतिकूल ?" ___श्रावक-"प्रतिकूल क्यों पर हमारी भावना तो जैनधर्म के अनुकूल ही रहो इतना ही क्यों पर मूर्ति का दर्शन से बड़ा ही आनंद आया था।" __मुनि-"तब फिर मन्दिर जाकर दर्शन करने वालों को रोक देना क्या एक अंतराय कर्मबंध का कारण नहीं है।?"
श्रावक-“मन्दिर जाने की मनाई तो कोई नहीं करता है।"
मुनि-"तब फिर इतने बड़े समुदाय ने मन्दिर जाना क्यों छोड़ दिया है ? इतना ही नहीं वे तो मन्दिर-मूर्ति के कट्टर शत्रु बन कर उसकी निंदा तक करने लग जाते हैं ?"
श्रावक-"खैर मन्दिर जाना और न जाना तो अपनी २ रुचि पर है, किंतु मन्दिरों मूर्तियों की निंदा करना तो वास्तव में वन पाप बँध का ही कारण है।" ।