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आदर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड
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मुनि०-क्या ऐसा हो सकता है कि दीक्षा किसी गच्छ वाले दें और क्रिया नाम किसी गच्छ का हो सके ? ___ योगी०-हाँ, हो सकता है पुराने जमाने में ऐसे कई उदा. हरण मिलते हैं। इतना ही क्यों तुम्हारे व्यवहार सूत्र में भी ऐसा उल्लेख है।
मुनि०-हमारे जो कुलगुरु आते हैं, वे तो कॅवला गच्छ के हैं । योगी-यह उपकेश गच्छ का ही अपर नाम है। मुनि०-कँवला गच्छ कब से हुआ ?
योगो:-उपकेश गच्छ तो रत्नप्रभसूरिजी से हुआ जो सब गच्छों में ज्येष्ठ प्राचीन गच्छ है । और विक्रम की बारहवीं शताब्दी में जब करड़ा रहने वालों को खर-तर कहा गया तब नम्र एवं कोमल रहने वालों को कवल कहने लगे।
मुनि-उपकेश गच्छ को क्रिया और तपागच्छ की क्रिया में क्या अन्तर है ?
योगी-विशेष अन्तर तो नहीं है, केवल प्रतिक्रमण में एक वैरूट्या देवी की स्तुति और प्राचार्य रत्नप्रभसूरि का चार लोगस्स का काउस्सगा अधिक किया जाता है और यह भी प्राचीन नहीं, पर आधुनिक प्राचार्यों की चलाई हुई आचरणा है । मैंने सुना है कि आचार्य सिद्धसूरि को वैरूट्या देवी का इष्ट था और वह देवी आचार्य श्री के याद करते ही आकर उपस्थित हो जाती थी। अतः उन्होंने प्रतिक्रमण में श्रत देवता और क्षेत्र देवता के साथ वैरूट्या देवी की स्तुति कहनी शुरू कर दो । रत्नप्रभसूरि का काउस्सगा खरतर गच्छ वालों के साथ अधिक परिचय होने के कारण वे उनकी देखा-देखी करने लग गये हैं । अतः