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भादर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड
३८८.
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। राज०-यदि साधुपना पालते हो तो मुँह पर मुँहपत्ती क्यों नहीं है ?
मुनि०-क्या मुँह पर मुँहपत्ती बांधने में ही साधुपना है ?..
राज०-साधु होते हैं वे तो मुंह पर मुंहपत्ती बांधे रखते हैं ? . मुनि-बस, आप लोगों ने इसको साधुपना मान रखा है। ... गणेशमलजी-मोजाईजी ! संवेगी साधु मुँहपर मुंहपत्ती न बांध कर हाथ में रखते हैं, बम्बई में संवेगी साधु बहुत से आते हैं, हम लोग वहाँ जा कर व्याख्यान सुनते हैं वे बड़े ही विद्वान् होते हैं।
राजा-मैंने तो कभी नहीं देखा है। ___गणेश.-गुजरात में बहुत से संवेगी साधु रहते हैं, अपने मारवाद में वे बहुत कम आते हैं, यदि आते भी हैं तो अधिकतर शहरों में रहते हैं, इसलिये आपको मालूम नहीं है।
गणेशमल-ढूंढियापन छोड़ने का मुख्य कारण क्या है ?
मुनि०-ढदिये लोग मुंह से तो कहते हैं कि सूत्रों के एक अक्षर को भी कम ज्यादा कहने से अनंत संसार परिभ्रमण करना पड़ता है, और वे स्वयं सूत्रों के पाठ पर स्याही-सुफेद और काराज चिपका कर पाठ के पाठ उत्थाप देते हैं, सूत्रों में जगह २ मूर्ति
जा के पाठ आते हैं, हजारों वर्षों के जैन मन्दिर मूर्तियाँ आज भी विद्यमान हैं, इस हालत में मंदिर मातयों को न मान कर इसके विपरीत निंदा कर बेचारे भोले भद्रिक जीवों को उन्मार्ग पर ले जा रहे हैं। मुझ को यह बात ठीक नहीं जंची अतः मैंने ढूंढ़िया पन्ध छोड़ दिया है।
गणेश-सूत्र में मन्दिर मूर्तियों के लेख हैं,या नहीं किंतु