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राजकुंवरी के प्रभों का स्तर ' व्याख्यान समाप्त हुआ और सभा विसर्जन हुई । गणेशमलजी बहुत वर्षों से बम्बई रहते थे और फलौदी वालों से खूब जान. पहचान भी थी। सब लोगों ने बहुत मनुहार की पर आज वे जोगराजजी वैद्य के यहाँ मेहमान थे। ___इधर तो मुनिश्री गौचरी पानी से निमट गये थे, उधर से गणेशमलजी वगैरह भोजन कर के आ गये थे, जब वे मुनिश्री के पास बैठे तो इस प्रकार वार्तालाप होने लगाः-- - राजकुँवर-हम लोगों की तो आपकी दया नहीं आई, रोतें को छोड़ आपने दीक्षा ले ली, लेकिन अब आपने यह क्या काम किया, हम लोगों ने तो सुना कि आप भ्रष्ट हो गये तो हमारा होश उड़ गया; इसका क्या रहस्य है ? ___ मुनिश्री-भ्रष्ट का मायना क्या होता है ?
राज०-हम लोगों ने तो सुना है कि आपने साधुपना छोड़ दिया है, और यह बात हमारे यहाँ सर्वत्र फैल भी गई है। इसलिए ही हम सब लोग आये हैं।
मुनिः-क्या मैं दीक्षा छोड़ संसारी बन गया, क्या किसी रंडी को लेकर भाग गया हूँ या किसी प्रकार का अत्याचार किया है कि जिसको भ्रष्ट हुआ कहा जा सकता है।
राज०-फिर आपने पहिले लियाहुआ साधुपन क्यों छोड़ दिया?
मुनि-यह तो मेरी इच्छा है, मैं किसी के यहां मोल नहीं बिका हूँ, मेरी इच्छा हो वहां साधुपना पालूँ ।
राज-पर अब तो आपके साधुपना नहीं है ना ? मुनि-क्यों मैं बराबर साधुपना पाल रहा हूँ।