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स्था० साधु रूपचन्दजी की दीक्षा रूपचंदजी फलोदी से भेजा हुआ आदमी के साथ हरसाल से विहार कर सीधे ही ओसियां आये। वहां हूँढियापन के वेष का त्याग कर आपने भ० महावीर के मंदिर में मुनीम चुन्नीलाल के सामने प्रतिज्ञा कर ली कि मैं गयवर मुनिजी का शिष्य हूँ।
ओसियां से चलकर आप फलौदी पधारे यहाँ से कई श्रावक श्रापका स्वागत करने को सामने गये जब मंदिरों के दर्शन करके धर्मशाला में आए तो मुनिजो ने मधुर वचनों से श्राप का अच्छा सत्कार किया। ___ रूपचंदजी ने वंदन करते हुए कहा कि मैं आप के विश्वास पर आया हूँ आप ढूंढ़ियापना में भी दीक्षा पर्याय में वृद्ध हमारे गुरु थे, और यहां भो श्राप मेरे गुरु हैं मैने ओसियां के भगवान महावीर के मंदिर में इस बात की प्रतिज्ञा करली है । अतः आप जो कुछ क्रिया करवानी हो करवा कर मेरा उद्धार कराने ।
मुनिश्री ने कहा बहुत अच्छी बात है ओसियाँ के मुनीम का पत्र मेरे पास आया था श्राप स्वयं जानते हो कि गुरु और शिष्य कहलाना तो एक व्यवहार मात्र है वास्तव में तो अपने को स्वकल्याण के साथ भूले भटके भद्रिक जीवों का उद्धार करना है, यदि आप की ऐसी भावना हो तो मैं दीक्षा देने को तैयार हूँ पर आप अपनी प्रकृति को शांत और समाधि में रखना। __ रूपचंदजी- जो आप फरमा मैं करने को तैयार हूँ कल अच्छा दिन है वैसाख बद ५ को ही दीक्षा दे दीजये ॥
मुनिश्री ने श्रीगौड़ पार्श्वनाथ के मन्दिर में चतुर्विध श्री संघ की समीक्षा विधि विधान के साथ दीक्षा देकर वालक्षेफ