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आदर्श-ज्ञान द्वितीय व
३८४ वास, दूसरे तीन घंटों का प्रतिक्रमण; ज्यों त्यों करके धर्मसुन्दर ने प्रतिक्रमण किया। किंतु प्रतिक्रमण के पश्चात् धर्मसुन्दर ने कहा कि, क्या संवेगियों का प्रतिक्रमण इतना बड़ा होता है, मेरे से तो इतना बड़ा प्रतिक्रमण न होगा। मुनिश्री ने रूपसुन्दरजी को कहा, लो, मेरी इच्छा के प्रतिकूल होकर दीक्षा दी, अब चेले को संभालो। . ...
धर्मसुन्दर को पूछा गया कि जब तुम्हारे से प्रतिक्रमण ही बन नहीं आता है तो तुमने दीक्षा क्यों ली ? धर्मसुन्दर ने कहा कि मैंने तो सुनाथा कि संवेगियों में तो माल खाना और मजा करना, वहाँ प्रचार विचार और काष्ट क्रिया तो है ही नहीं, अतः मैं संवेगी बन गया हूँ, किन्तु मैंने अब देख लिया कि संवेगियों की क्रिया ट्रॅढ़ियों से कई गुणा अधिक है जिसको ढूंढिया लोग पालना तो दूर रहा पर समझते भी नहीं हैं। . ...
मुनिश्री-अब क्या करना है, सच सच कह दें कि संवेगी दीक्षा तेरे से पजेगी या नहीं ? ... धर्मसुदर-नहों पले, मैं तो दो दिनों में ही थक गया हूँ।
। मुनिश्री ने रूपसुंदरजी से कहा कि अभी भी कुछ नहीं हुआ है तुम्हें इनको रजा दे दो, कारण यह ज्यादा रहेगा ज्यादा नुकसान करेगा। रूपसुंदरजी ने कहा कि अभी तो इसको बड़ी धाम धूम से दीक्षा दी है यदि आज ही निकाल दिया जायगा तो लोगों में एवं दैदियों में अच्छी नहीं लगेगी अत: इस चातुर्मास में तो मैं ज्यों त्यों कर इसको निर्वाह लँगा इतने में ठोक निकलेगा तो 'अच्छा है वरन् यहाँ से बिहार करने के बाद रजा देवी जायगी। . मुनिश्रा ने कहा मेरी तो इच्छा नहीं है फिर जैसी तुम्हारी