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मुनिराजों का समागम
दीपचन्द की अवस्था जवान होने से किसी कारण वश वह नौकरी छोड़कर चल दिय, किन्तु अधिष्ठायक की प्रेरणा से एक मास में ही पुन: लौटकर अपने अपराध की क्षमा-याचना कर बोर्डिङ्ग में प्रवेश हुआ ।
फलौदी में पन्यासजी हर्ष मुनिजी का चतुर्मास था, आपने ओसियाँ में मुनिश्री को अकेला सुनकर आपके विहार के पूर्व ही अपने शिष्य मुनिश्री चतुरमुनिजी को श्रोसियाँ भेजदिया । चतुरमुनिजी बड़े ही मिलन सार साधु थे, ओसियां पधार कर मुनीश्री से मुलाकात की और अपने गुरु पं० हर्षमुनिजी के सब समाचार कहे, जिसका मतलब था कि आप पन्यासजी के पास रहोगे तो ज्ञानाभ्यास वैगरह अच्छा होगा, और वे आपको पदवी घर भी बना देंगा तथा इस जमाने में अकेला रहना ठीक भी नहीं है। मुनीश्री ने कहा कि आपका कहना ठीक है, पन्यासजी महाराज यहां पधारेंगे तब मैं मिल लूंगा । मुनिश्री के कपड़े स्वल्प थे ओर वे भी मैले बहुत थे, क्योंकि दूढियापने के संस्कार ही ऐसे थे । चतुरमुनिजी ने कहा, मुनिजा इन कपड़ों में जूँऐं पड़ गई तो इस उत्कृष्टाई का क्या हाल होगा ? लो, आपके पास कपड़े नहीं हों तो मेरे पास से ले लीजिये और यह सब मैला कपड़ा मुझे दे दें कि मैं आपके कपड़ों को धोदूं । मुनिश्री ने कहा कि महाराज जब इतने कपड़ों से मेरा काम चल जाता है, फिर अधिक उपाधि रख कर वीर का पोटिया बनने में क्या लाभ है ?
चतुर मुनिजी ने मुनिजी के मैले कपड़ों का काँप कहाड़ दिया, फिर देखा तो मुनिजी के पास पात्रे भी दो ही थे । चतुर मुनिजी ने फलौदी कहलाकर एक तृपणी और एक पात्रों की जोड़ मंगा कर