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छ कल्याण की प्ररूपना
पूज्याः । श्राधैरुक्तं भगवनस्माकं बृहत्तराणि सदनानि संति, तत, एकस्यगृहोपरि चतुर्विंशतिपट्टकं धृत्वादेव वंद नादि सर्व धर्मप्रयोजनं क्रियते, षष्ठकल्याणकमाराध्यते । गुरुणा भणितं तकिमत्रायुक्तं । तत आराधितं विस्तरेण कल्याणकं, जातं समाधानमन्येद्य गीतार्थैःश्रायकैमत्रितं, यथाविपक्षेभ्योऽविधिप्रवृत्तेभ्यःपार्शन्जिनोक्तो विधिविधात न लभ्यतेततो यदि गुरोःसम्पतं भवति तदा तले उपरि च देवगृहद्वयं कार्यते, स्वसमाधानं, गुरुणां निवेदितं गुरूमि रप्युक्त।
"इस गणधरसार्द्धशतक के मूलकर्ता जिनदत्तसूरि और उसके अन्तर्गत प्रकरण कर्त्त-चारित्रसिंहगणि है इसमें स्पष्ट लिखा है कि जिनवल्लभसूरि ने यह नयी प्ररूपना की जिसका उस समय जबर्दस्त विरोध भी हुआ था जो उपरोक्त लेख से आप जान सकते हो।
मांगीलालजी! अपन तो ढूदिया पंथ को उत्सूत्र प्ररूपक समझ कर आत्म-कल्याण की भावना से यहां आये हैं, अतः न तो तपों का पक्षहै और न खरतरों का । जहाँ सिद्धांतोक्त शुद्ध समाचारी हो उनका ही उपासना कर आत्मकल्याण करना है । मेरे ख्याल से खरतरगच्छ वाले केवल इन कल्याणक के लिए ही उत्सूत्र नहीं प्ररूपते हैं, पर इनके अलावा और भी कई बातों के लिए उत्सत्र की प्ररूपना करते हैं । अतः पक्षपात को दूर कर देखना चाहिये । __ मांगी०-वहाँ आपने अच्छी शोध-खोज की। बतलाई ये तो सही कि, खरतरगच्छ वालों ने क्या क्या उत्सूत्र प्ररूपना की है ?
मुनि-यह बात तो सत्रों में जगह २ पर आती है कि जैसे