________________
भादर्श-ज्ञानद्वितीय खण्ड
३३०
करूंगा, तब क्षेत्र-स्पर्शना होगी तो कौसने के मन्दिर का दर्शन अवश्य करूंगा। भंडारीजी को विश्वास हो गया कि योगिराज ने वचन दिया है तो कभा न कभी अपनी भावना अवश्य सफलो. भूत होवेगी। ४६ योगीराज के हाथों से मुनिजी की पुनःदीक्षा ___ इधर मौन एकादशी का दिन समीप आ रहा था। मुनीम जी ने जोधपुर, तीवरी, फलौदी और लोहावट वालों को ख़बर दी और बहुत से लोग मागसर शुक्ला १० को आ भी गये । मागसर शुक्ला ११ को प्रातःकाल शासनाधीश भगवान महावीर के . मन्दिर में परम योगिराज मुनिवर श्रीरत्नविजयजी महागज ने विधि विधान के साथ दीक्षा देकर बनी शाखा कोटीकगण तपागच्छ और मुनि......रत्नविजय......महाराज का शिष्य कह कर गुरुपना का वासक्षेप डाला और आपका नाम ज्ञान-सुन्दर रखा। साथ ही साथ आपने यह भी फरमा दिया कि मुनिजी को मैंने दीक्षा दी है, यह तो समुदाय की मर्यादा का पालन ही किया है। कारण वर्तमान में जब दीक्षा दी जाती है तब किसी न किसी गुरु का नाम तथा उनकी शाखा-गण-गच्छ का नाम कहना पड़ता है जो कि मैंने अभी कहा है। किन्तु साथ ही में मैं मुनिजी को यह भी आदेश देता हूँ कि आज से आप उपकेशगच्छ के उद्धा. रक हैं,और उपकेशगच्छ की क्रिया करते हुए उपकेश गच्छ के ही कहलाना, मैं तो आपको केवल दीक्षा देनेवाला हूँ। उपस्थित लोगों ने योगिराज की इस प्रकार निस्पृहता और उपकेशगच्छ के उद्धार की भावना देख मन हो मन में प्रसन्न होकर चौथा