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चन्दनमलजी का मिलाफ
जी ने उन्हें लिखा था कि लोढ़ाजी तुम खरतरगच्छ के पक्के श्रावक हो, अपने गच्छ में कोई ऐसा विद्वान् साधु नहीं है । गयवरचंदजी ने आपके वहाँ चातुर्मास किया है और वे चातुर्मास के पश्चात् संवेगी होने वाले हैं । अतः उनकी दीक्षा अपने सिघाड़ा में ही होनी चाहिये । इस विषय में मैं आपको ज्यादा नहीं लिख सकती हूँ इत्यादि । लोढ़ा जो ने सोनश्रीजी का पत्र मुनिश्री को बँचाया तथा रत्नश्रीजी को भी जाकर उपालम्भ दिया कि मैंने आपसे पहिले ही कह दिया था कि श्राप मुनि जी के पास जाकर उन्हें अपनायें । रत्नश्री ने कहा कि लोढ़ाजी ! मुझ से ग़लती हुई । खैर, अब आप ठहरें,मैं भी आपके साथ चलती हूँ। रत्नश्रीजी मुनिजी के पास आई और फेटाबन्दन कर कहा कि आपको कोई भंडापकरण प्रतिक्रमण की पुस्तक तथा स्थापना की आवश्यकता हो तो मैं ला कर हाजिर करूँ। इस पर मुनिश्री ने कहा कि इस समय तो मुझे किसी बात की जरूरत नहीं है, यदि जरूरत पड़ेगी तो मैं आपको कहला दूंगा। पर लोढ़ाजी ने साध्वियों से कहा कि कम से कम आप मुनिजी को स्थापना तो ला दे, क्योंकिप्रतिक्रमणादि करने में स्थापना की तो पहली जरूरत रहती है। रत्नश्री ने अपनी छोटी साध्वी को भेज कर प्रतिक्रमण की पुस्तक और स्थापना मँगा कर दे दी। .. यद्यपि गुरू महाराज के पास गये बिना आप किसी पक्ष का निर्णय नहीं करना चाहते थे, तथापि आपने लोढ़ाजी और साध्वियों के आग्रह से पुस्तक और स्थापना रख ली।
कार्तिक मास के शुक्लपक्ष में चन्दनमलजी नागौरी तीवरी गये । उन्होंने मुनिश्री से मिल कर बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और उपा