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आदर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड
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लम्भ भी दिया कि मैंने आपसे सादड़ी में विनय की थी कि जब
आपको काम पड़े तो श्राप मुझे याद करना, किन्तु आप तो मुझे भूल ही गये ? मुनिश्री ने कहा, मैं आपको भूला तो नहीं था । जब जोधपुर में मैं अलग हुआ था, उस समय मुझे आपकी आवश्यकता हुई थी। और मैंने एक श्रावक को कहा भी था, श्रापको तार द्वारा सूचित कर दें किन्तु उन्होंने कहा कि धुंदनमल जी का सब काम हम कर देंगे, उनको क्यों तकलीफ दी जाय । इसी प्रकार वे बहुतसी बातें करते रहे ।
प्रतिलेखन का समय होने पर जब मुनिश्री ने अन्य उपकरणों की प्रतिलेखन करते हुए स्थापनाजी का भी प्रतिलेखन किया तो चंदनमलजी ने स्थापना देख मुनिश्री से साश्चर्य प्रश्न कियाः
चंदन:-क्या आपने खरतरगच्छ की क्रिया करने का निश्चय कर लिया है ?
मुनि-नहीं। · चॅदन-तो फिर आप के पास यह खरतरगच्छ की स्थापना क्यों हैं ? मुनि०-साध्वी रत्नश्री जो ने ला दी है । चँदन०-तो स्थापना यहीं रखी जावेगी ? मुनि०-नहीं गुरू महाराज कहेंगे वहीं रखूगा ।
चंदन०-मैंने आपके लिए ईरान से बहुत ही अच्छे स्थापनानी मँगवाये हैं, और उनकी प्रतिष्ठा भी अभी ज्ञानपंचमी को ओसियाँ में योगिराज से करवाई है ।
मुनिः-वे कहाँ हैं ?