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पूज्य जी और भचलासजी
मुँहपत्ती में डोरा डालने का किसी सूत्र में विधान नहीं है पर उपयोग न रहने के कारण अपने पूर्वजों ने करीब दो सौ वर्ष से डारा डाल मुंह पर मुंहपत्ती बांधनी शुरू की है । लेकिन अचलदासजी ! यदि आप मेरी राय मानें तो मैं सलाह दूँगा कि आप इस चर्चा में ज्यादा न उतरें, कारण कि वाद-विवाद में यदि कहीं ही उत्सूत्र भाषण हो जायगा तो मिथ्यात्व का बज्रपाप लगेगा।
अचल-क्यों पूज्य महाराज ! यदि मन्दिर में जाकर जल पुष्पादि न चढ़ा कर केवल मूर्ति को नमस्कार कर नमोत्थुणं वगैरह तीर्थङ्करों के गुण स्तवना करे तो इसमें हर्ज तो नहीं हैं न ?
पूज्य-इसमें कोई भी हर्ज नहीं है अचलदासजी ! केवल मत-भेद के कारण अपने लोग मन्दिरों के हक़ से हाथ धो बैठे हैं जो लाखों करोड़ों की सम्पत्ति हैं। पर लोग इतने शंकाशील
और अविवेकी हो चले हैं कि अन्यमत के देव देवी और पीर पगम्बरको तो मान लेते हैं पर जैनों के देव के लिये ही खेंचा तान करते हैं पर यदि यह बात सबके सामने कह दी जाय तो लोग कह देंगे कि पूज्यमहाराज की श्रद्धा भ्रष्ट हो गई है, इत्यादि ।
अचल-पूज्य महाराज ! आप जैसे महान् पुरुष भी जब सत्य कहने में संकोच रखते हैं, तो फिर हमारा उद्धार ही कैसे हो सकता है।
पूज्या०-भाई ! क्या करे समय ही ऐसा है जैसी वायु चले, मा ही आश्रय लेना पड़ता है।
अचल-लोग कहते हैं कि गयवरचन्दजी भ्रष्ट हो गये, इसलिये पूज्याजी ने निकाल दिया है । क्या यह बात सत्य है ?
पूज्य-नहीं गयवरचन्दजी के चारित्र में तो कोई दोष नहीं