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आदर्श - ज्ञान द्वितीय खण्ड
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मुनिश्री ने ढूँढ़ियापन में रह कर जो 'सिद्ध प्रतिमा मुक्तावलि' नामक पुस्तक बनाई थी और जिसकी भाषा सम्बन्धी त्रुटियें किसी अच्छे हिन्दी के लेखक द्वारा संशोधित करवानी तथा वापिस लिखवानी थी, उसे संशोधित कर लिखवाने के लिए तीवरी के श्रावकों ने एक लिखने वाले को बुलाया, किन्तु वह भी शुद्ध हिन्दी लिखना नहीं जानता था । इस हालत में लूनकरणजी ने उस किताब को ज्यों की त्यों बम्बई आचार्य कृपाचन्द्रसूरि के पास भेज दी तथा मुनिजी का पूर्ण परिचय लिख कर उनसे किताब को शुद्ध करने की प्रार्थना की। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि लोढ़ाजी कृपाचन्द्रसूरि के किस प्रकार पूर्ण भक्त थे । लोढ़ाजी ने तो मुनिश्री से यह भी विनय की कि आप जब कभा संवेगी दीक्षा लें तो कृपा चन्द्रसूरि के पास ही लें, क्योंकि वे बड़े पण्डित एवं जैनशास्त्रों के अच्छे जानकार हैं। यदि आपको कुछ पूछना हो तो अवश्य पुछावें । मुनिश्री ने कहा कि ठीक है समय पाकर मैं कभी पत्र लिखूंगा ।
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इधर सादड़ी के शाह हुकमजी आदि कई श्रावक ओसियाँ योगिराजश्री के दर्शन करने को आये थे । बात ही बात में मुनिश्री के विषय में भी चर्चा चल पड़ी । योगिराज ने कहा कि मुनिजी शास्त्रों के अच्छे ज्ञाता हैं, देखो उन्होंने एक प्रतिमा छत्तीसी बनाई है, जिसमें ३२ सूत्रों का सार डाल दिया है । जब योगिराज ने 'प्रतिमा-छत्तीसी' पढ़ कर सुनाई तो उस श्रावक ने उसकी नक़ल उतार ली ।
बस सादड़ी के शा० हुकमजी तिलोकजी ने बम्बई पहुँच कर निर्णय सागर प्रेस में 'प्रतिमा - छत्तीसी' को २००० प्रतिएँ छपव