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आदर्श - ज्ञान द्वितीय खण्ड
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इत्यादि । यह पत्र मुनिश्री तथा लोढ़ाजी ने पढ़ा और इस कार्य को भवितव्यता पर छोड़ दिया ।
जब स्थानकवासियों द्वारा प्रत्येक सप्ताह में इस प्रकार के सभ्य और अश्लील शब्दों में लेख प्रकाशित होने लगे, तो उनका उत्तर देना भी मुनिश्री का कर्त्तव्य बन गया । परिणाम स्वरूप वे सत्य प्रमाण एवं सभ्य भाषा और पूर्ण योग्यता के साथ स्थानकवासियों के तमाम लेखों का उत्तर जैन- अस्त्रबांरों द्वारा देने लगे । जिसका स्था० समाज पर काफी प्रभाव हुआ और उस समय कई ७-८ साधू और भी उनसे निकल संवेगी बन गये । ४२ प्रतिमानक्लनिरूपन और सादड़ीकासंघ
इधर सादड़ी में स्थानकवासी साधु संतोषचन्दजी, मोतीलालजी का चातुर्मास था । मोतीलाल जाति का कुम्हार था उसने अपने गुरु के प्रच्छन्नपने कुछ श्रावकों को उत्तेजित कर एक 'प्रतिमा नकल निरूपन' नाम की पुस्तक प्रकाशित कराई, जिसमें उसने पहिले के बने हुए मूर्ति खण्डन के कुछ पद संग्रह किये तथा १ - २ और नये पद बना कर शामिल कर दिये । इस पुस्तक दोनों समाज में खूब अग्नि भभकाने का कार्य किया, क्योंकि मुनि श्री की बनाई 'प्रतिमा छत्तीसी' में ढूँढ़िया या स्थानकवासियों के लिए एक शब्द भी ऐसा नहीं था जिसको कि निन्दा का रूप दिया जा सके। पर, 'प्रतिमा नकल निरूपन' में शंत्रुजय गिरनार जाने वालों को नर्क का कारण बताया और मन्दिर मूर्तियों की स्थापना करने वाले प्रभाविक आचायों को भ्रष्टाचारी कहा गया और ऐसे अनेक हल्के एवं नीच शब्दों से मूर्ति एवं मूर्ति पूजक आचार्यों को