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जोधपुर में मूर्ति पूजा की चर्चा
श्रावक-तो फिर आप भी मन्दिर में जाकर जिन-प्रतिमा को नमस्कार क्यों नहीं करते हो ? ।
गयवर-यह अपनी रुचि पर निर्भर है । यदि मैं मन्दिर में जाकर जिन-प्रतिमा को नमस्कार करूँ, तो मुझे कोई दोष नहीं है। ___ श्रावक-बस, महाराज मुझे इतना ही पूछना था। अब मैं अच्छी तरह से समझ गया कि आपके केवल वेष ही स्थानकवासी का है, किन्तु हृदय में श्रद्धा तो मूर्तिपूजक की ही है ।
गुरु महाराज इसका कुछ समाधान करने लगे थे, कि इतने में चारों ओर से हा-हु होकर आवाजें आने लगी, कि अरे ! महाराज तो मूर्तिपजक संवेगी हैं, इत्यादि। इनमें ज्यादातर देशी समुदाय के श्रावक थे, जो कि इस बात को चाहते भी थे ।
इस घटना से प्रदेशी समुदायवालों को नीचा देखना पड़ा और उन्होंने उसी समय एक तार नगरी (मालवा ) पूज्यजी महाराज को दिया, कि श्राज सार्वजनिक व्याख्यान में गयवरचंद जी ने मूर्ति-पूजा की पुष्टि की है। जवाब देवें कि क्या करना चाहिए?
तार के जवाब में पूज्यजी ने लिखाया कि यहां से साधु भेजा जा रहा है, गयवरचंदजी को वहीं ठहरायो।
पज्यजी महाराज ने नगरी से शोभालालजी को बहुत ही जल्दी जोधपुर भेजा, और वे चारों साधु बड़ी हो शीघ्रता से विहार बर जोधपुर आये। उन्होंने पज्यजी महाराज का संदेशा गयवरचन्दजी को सुनाते हुए कहा कि यह लिखत पूज्यजी महाराज ने भेजा है, इसमें १२ कलमें हैं। इनको मंजूर कर इसके नीचे सिद्धों की साख से हस्ताक्षर कर दोगे, तब तो आप समु