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दया के विषय प्रश्नोत्तर वहां आ गये थे। मुनिश्रीको पूजा में बैठे हुए देख कर वे तो यहां तक कहने लगे कि “गयवरचंदजी महाराज तुम्हारी ९ वर्ष
की दया कहां गई ? तुमने हमारे कुल को कलंकित कर दिया। "अरे ! तुमको पैदा होते ही सर्प ने क्यों नहीं काट खाया, यदि तुम मर जाते तो हमको इतना दुःख नहीं होता जो कि इस प्रकार संवेगी होने में हो रहा है।"
मुनिश्री ने उत्तर दिया--"बाईजी ! मानो कि मेरे दिल में तो दया न होगी, पर आप तो दया के अवतार ही हैं, जो कि इस धर्म स्थान में एक साधु के लिये इस प्रकार निर्दयत्ता के शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं। आपके लिये हम दिल में दया लाने के सिवाय और क्या कर सकते हैं ? बाईजी ! आपको अभी रसोई करने और धोवन पीने से अधिक ज्ञान नहीं है।" इस प्रकार शांति पूर्वक शब्दों से उन्होंने बाईजी को शांत किया । शांति स्तान के समय शुभमुहूर्त में जो पूर्णिमा के दिन योगीराज के वासक्षेप से पेढी की स्थापना हुई वह आज पर्यन्त अपनी उन्नति करतो हुई चली आ रही है।