________________
१७७
उदयपुर में मूर्ति की चर्चा
का कारण बतलाया है सो ठीक ही है; क्योंकि जब तक समाज मूर्तिपूजक था, तब तक जैनियों के घरों में हित, सुख, कल्याण ही था; पर जब से मूर्त्ति पूजा छोड़ी है, तब से ही अहित और अ सुख होने लगा है ।
कई लोगों ने यह भी कहा कि मुर्त्ति पूजा में तो कितनीक हिंसा है पर अपने पूज्यों के चतुर्मास में कितनी हिंसा होती है और वह सब धर्म के नाम पर ही होती है ।
कई लोगों का यह मत था कि मूर्त्ति पूजा करनेमें भलेही हिंसा होती हो, परन्तु मूर्त्ति का दर्शन करने में तो किसी प्रकार का नुक्सान नहीं है, वहाँ जाने में कुछ न कुछ लाभ ही है, ऐसी हालत में हम दर्शन करने के लिए मन्दिर में क्यों नहीं जावें ।
कई लोग कहने लगे कि गयवरचंदजी चाहे कितने ही लिखे पढ़े हों, पर इन की श्रद्धा भ्रष्ट होगई है और इसीलिए मूर्त्ति पूजा में हित सुख बता रहे हैं, जो आजपर्यन्त किसी भी साधु ने नहीं बतलाया है ।
किसी ने कहा कि इसमें गयवरचंदजी क्या करें जब सूत्र के मूल पाठ और टब्बार्थ में ही ऐसा लिखा हुआ है। तथा अन्य किसी साधु के लिए यह तो बतलावें कि जीवाभिगमजी सूत्र किस यहाँ आकर बाँचा था ? जब सूत्र ही नहीं बाँचा गया तब मूर्त्ति पूजा का पाठ कहाँ से सुने, हमतो सूत्रों के वचन शिरोधार्य करते हैं।
इस प्रकार जितने मुँह उतनी ही बातें होने लगी । समाज में बहुत से लोग शंकाशील बन गये। जो लोग कट्टा थे उनके
१२