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आचासंग सूत्र की चर्चा
मुनिजी-यह आपकी मनो-कल्पना है या सूत्र में ऐसा पाठ है
सेठजी-सूत्र में तो सचमुच पाठ है, किन्तु गुरु गम्यता से ऐसा अर्थ होता है। ____ मुनिजी-किसी भी गुरु ने सत्र का ऐसा अर्थ तो नहीं किया है, क्योंकि पूर्व धरों ने इन सत्रों को जो टीका और नियुक्ति की है उसमें तो यह बात नहीं है जो आप कहते हो, फिर हम किस आधार से आपका कहना मान लें । पूर्वधरों ने तो यह पाठ स्पष्ट मिथ्या-दृष्टियों की अपेक्षा बतलाकर लिखा है, यदि आप सम्यग दृष्टि के लिए यह पाठ समझोगे तो आपकी मान्यतानुसार किसो के भी समकित नहीं रहेग!; कारण, क्या गृहस्थ और क्या साधु, धर्म के हित जो भी हलन चलनादि क्रिया करते हैं उसमें वायुकायादि जीवों की थोड़ी बहुत हिंसा तो अवश्य होती है। ___सेठजी-यह आपने क्या कहा, धर्म के हित कोन हिंसा करता है। ___ मुनिजी–साधु आहार विहार पूंजन प्रतिलेखन, गुरु वन्दना वगैरहः किया करते हैं यह सब धर्म के लिए ही करते हैं और इसमें अवश्य ही असख्य जीवों की हिंसा होती है । इसी प्रकार श्रावक भी सामायिक पौषध गुरुवन्दन, व्याख्यान श्रवणादि जितने भी धम के कार्य करते हैं, उन सब में हिंसा अवश्य होती है।
सेठजी-पूर्वोक्त कार्यों में वायु काया श्रादि की हिंसा होती है पर वे हिंसा करने के कामी नहीं हैं, इसलिये उसे हिंसा नहीं कही जाती है।
मुनिजी-सव क्या मूर्तिपूजा करनेवाले हिंसाकरने के कमी हैं ?