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जवारा का सम्वाद
पूज्यजी - तुम्हारी भांति सार्वजनिक व्याख्यान में मूर्ति-पूजा का फल हित, सुख, कल्याण और मोक्ष नहीं कहा था । गयवर - तो फिर आपने उस पाठ का क्या अर्थ किया, मुझे भी बतलाओ जिससे कि भविष्य में ध्यान रहे ।
पूज्यजी - इस पाठ को व्याख्यान के आदि अन्त में इस तरह कहा जावे कि किसी को स्पष्टतया मालूम ही नहीं पड़ सके श्रौर
सूत्र की श्राशातना भी नहीं लगे ।
गयवर - ऐसा करने से बोतरागकी चोरी तो नहीं लगती है ? पूज्यजी — इसमें चोरी किस बात की ?
गयवर- क्यों पूज्यजी महाराज; यदि तेरह पत्थी लोग भी इस प्रकार दया और दान के पाठ को गुप चुप कर दें, तो उनको भी वीतराग की चोरी तो नहीं लगती होगी न ?
पूज्यजी - दयादान के लिये तो भगवान् ने स्थान स्थान पर सूत्रों में फरमाया है ।
गयवर - मूर्त्ति पूजा के लिये जो सूत्रों में स्थान स्थान पर पाठ आते है, वे किसने फरमाया है ?
पूज्यजी :- फरमाया तो भगवान् ने ही है, पर दयादान में तो पुन्य बढ़ते हैं, और पूजा में हिंसा होने से पाप बढ़ता है ।
गयवर - पूण्यजी महाराज ! पुण्य और पाप बढ़ने का कारण क्या है ?
पूज्यजी - कारण तो परिणामों का ही है ।
गयवर - जब पूजा में परमेश्वर की भक्ति का शुभ परिणाम रहता है, तो क्या वहाँ श्राप पाप बढ़ाना मानते हो ?
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