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आदर्श-ज्ञान शुक्लपक्ष में आप थोड़े बहुत चलने-फिरने लगे; फिर भी आपके दिल में शास्त्र देखने की लग्न ने घर कर रखा था।
एक दिन आप चंदनमलजी का पुस्तकालय (लाईब्रेरी) देखने के लिये वहां पधारे थे । इस पर भी श्रावकों ने अपनी नाराजी प्रकट की, पर आपने कुछ भी ध्यान नहीं दिया।
दूसरी बार, मंदिर के पास वाले उपासरा में प्राचीन ज्ञानभंडार था, वह देखने को पधारे। पीछे से श्रावकों ने विचार किया कि आज तो मुनिजी मुँहपत्ती का डोरा तोड़ कर संबेगी बन जावेंगे, नहीं तो मन्दिर तो अवश्य ही जावेंगे, अतः उन्होंने चार चार पांच-पांच आदमियों की तीन-चार चौकियाँ बैठा दीं।
मुनिश्री ने ज्ञान भंडार को देखा, कई प्रतियें पढ़ने के लिए साथ में ले ली। चन्दनमलजी ने कहा कि मन्दिर का दरवाजा खुला ही है यदि आपकी इच्छा हो तो दर्शन करने के लिये पधारें रास्ता उपाश्रयके अन्दर से ही है। तब मुनिश्री अन्दर गये, और वोतराग की शान्त मुद्रा देखकर आपने परम प्रसन्नता पूर्वक नमस्कार किया । बाहर आये तो श्रावकगण पहिले से ही चौकिए लगाये हुए बैठे थे। उन्होंने कहा महाराज,कहाँ पधारे थे ?
मुनिः-उपाश्रय तथा मन्दिर में । श्रावक-क्यों क्या काम था ? मुनि-सूत्र देखने थे। श्रावक-किन्तु मन्दिर में जाने का क्या मतलब था ? मुनि०-वीतराग की मूर्ति के दर्शन करना था। श्रावक- साधु के लिए मन्दिर जाना वर्जित है। मुनि०-ऐसा किस शास्त्र में लिखा है ? और इसमें क्या